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आदि) की स्तुति न करे ग्रहों की पीड़ा आदि के भय से सूर्य आदि (नवग्रह अथवा कालसर्प योग निवारण विधान आदि) की पूजा न करे। शास्त्रादि ज्ञान के लोभ से अन्य मतावलंबी पाखंडी साधुओं की स्तुति न करे। आहार आदि के निमित्त श्रावक की स्तुति न करे, एवं स्नेह आदि से पार्श्वस्थ आदि मुनियों की स्तुति न करे। तथैव अपने गुरु भी यदि होनचारित्र हो गये हैं तो उनकी भी वन्दना न करे तथा अन्य भी जो अपने उपकारी हैं किन्तु असंयत हैं उनकी वन्दना न करे। (पृष्ठ ४३६) शास्त्रानुसार चर्चा होने पर
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एक मुनि शास्त्रानुसार चर्या करने वाले दूसरे मुनि के
प्रश्न
साथ कैसा व्यवहार करता है ?
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समाधान आ. अर्हद्बली ने मूलसंघ में नन्दिसंघ, सेनसंघ, सिंहसंघ और देवसंघ इन चार संघों की स्थापना की थी। इन सभी संघों के सिद्धांत एवं चर्या सब समान होने से उनमें पंक्ति भेद नहीं है (नीतिसार समुच्चय- २३) शास्त्रानुसार चर्या करनेवाला मुनि चाहे स्वसंघ का हो अथवा परसंघ का हो सम्यक्त्व गुण से युक्त मुनि उसका उचित आदर करके उसके साथ हर्षपूर्वक यथायोग्य वंदना-प्रतिवंदना आदि व्यवहार करते हैं । इसलिए आगमोक्त पद्धति से आचरण करने वाले साधुओं के द्वारा इसप्रकार परस्पर का योग्य विनय करने के अनेक उदाहरण देखे जाते हैं। जैसे-जब आचार्य श्री धर्मसागरजी किशनगड पहुँचे तो आ. श्री. ज्ञानसागर जी अपने शिष्य मुनि श्री विद्यासागर जी आदि संघ के साथ लगभग २ किलोमीटर नगर के बाहर चलकर गए और अत्यन्त श्रद्धाभक्ति पूर्वक आचार्यश्री के दर्शन किये । ( आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज अभिवन्दन ग्रन्थ पृष्ठ १२३)
इसी प्रकार जब आचार्य विद्यासागर जी का श्री संघ महावीरजी पहुँच गया। कुछ ही समय बाद वहाँ परमपूज्य आचार्यकल्प श्रुतसागर जी ससंघ पहुँचे । जब वह संघ महावीरजी पहुँचा तो परम पूज्य आचार्य विद्यासागर जी ने ससंघ उनकी अगवानी की। (ज्ञान के हिमालय पृष्ठ ३८ )
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सन १९८९ में टड़ा ग्राम में गजरथ महोत्सव होना था । वहाँ के लोग आचार्य महाराज से निवेदन करने आए। महाराज जी ने हम तीनचार साधुओं को बुलाकर वहाँ जाने का संकेत कर दिया । हमने उनके चरणों में माथा टेककर आज्ञा स्वीकार कर ली और जाना तय हो गया । विहार करने से पहले हम सभी को अपने समीप बुलाकर आचार्य महाराज ने समझाया कि सुनो, "वहाँ जो भी आगम के अनुकूल आत्मकल्याण में लगे हुए साधुजन आएँ, उन्हें यथायोग्य विनय करना ।" ( आत्मान्वेषी पृष्ठ १११ )
आचार्यश्री विद्यासागर जी के इस उत्तम आदेश के विपरीत जो श्रेष्ठ निर्ग्रन्थ गुरुओं का अनादर करता है, वह अगले जन्म में मूर्ख होता है | ( कर्मफल दीपक - पृष्ठ ८) अथवा जो वीतराग निर्ग्रन्थ साधुओं को नमस्कार नहीं करता है, वह अगले जन्म में ऊँट की पर्याय पाता है। (पृष्ठ १८ )
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अरिष्ट निवारण कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा है -
जड़ देवो वि य रक्खदि मंतो तंतो य खेत्तपालो य मियमाणं पि मणुस्सं तो मणुया अक्खया होंति ।। २५ ।।
भावार्थ मनुष्य अपनी और अपने प्रियजनोंकी रक्षाके लिये देवीदेवताओंकी मनौती करते हैं। कोई मृत्युंजय आदि मंत्रोंका जप करते हैं । (कोई नवग्रह विधान, कालसर्प योग निवारण विधान करते हैं।) कोई टोटका करवाते हैं । कोई क्षेत्रपाल को पूजते हैं । किन्तु उनकी ये सब चेष्टाएँ व्यर्थ हैं, क्योंकि इनमेंसे कोई भी उन्हे मृत्युके मुखसे नहीं बचा सकता । यदि बचा सकता तो सब मनुष्य अमर हो जाते। अप्पाणं पि चवंतं जह सक्कदि रक्खिदुं सुरिंदो वि ।
तो किं छंडदि सग्गं सव्युत्तम भोय संजुत्तं ॥ २९ ॥
यदि देवोंका स्वामी इन्द्र मरणसे अपनी भी रक्षा करनेमें समर्थ होता तो सबसे उत्तम भोगसामग्रीसे युक्त स्वर्गको क्यों छोड़ता ? (पृष्ठ १२-१४)
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