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सो ही छहढाला में कहा है -
सुर-असुर खगाधिप जे ते, मृग ज्यों हरि काल दले ते । मणि मंत्र तंत्र बहु होई, मरते न बचावै कोई ||५ / ४ || भूधरदास कृत बारह भावना में भी कहा है -
दल बल देवी देवता, मात पिता परिवार । मरती बिरिया जीवको, कोई न राखनहार ॥२॥
अतः मृत्युसे कोई नहीं बचा सकता यह सुनिश्चित है । ग्रहशान्ति - एक ढकोसला
प्रश्न- क्या ग्रह मनुष्यों पर कुछ संकट आदि ला सकते हैं ? अथवा उनकी पूजा और शान्ति करने पर क्या वे मनुष्यों को सम्पत्ति, सुख, शान्ति आदि दे सकते हैं ?
समाधान - ग्रह-नक्षत्र न अच्छा करते हैं, न बुरा । अच्छा-बुरा तो हमारे कर्मानुसार होता है। (प्रश्न आज के पृष्ठ १२३ )
कल्याणकारकम् में कहा भी हैं- मंगल आदि ग्रहों के प्रकोपसे भी रोगोंकी उत्पत्ति नहीं होती है। लेकिन कर्म के उदय और उदीरणा से ही रोग उत्पन्न होते हैं। (७/१३, पृष्ठ १०८)
वरांग चरित्र में कहा है - ग्रहों की अनुकूलता तथा प्रतिकूलता के कारण ही संसार का भला अथवा बुरा होता है इस प्रकार जो लोग उपदेश देते हैं, वे संसार के भोले, अविवेकी प्राणियों को साक्षात् ठगते हैं।... यह देखकर कौन ऐसा बुद्धिमान् व्यक्ति है, जो कि इस लोकप्रवाद पर विश्वास करेगा कि संसार के सुख-दुख के कारण सूर्य आदि ग्रह ही है । ( २४ / ३१,३६ - पृष्ठ ४७३, ४७५) आ. गुप्तिनंदी के अनुसार भी कुंडली या ग्रह हमारा तनिक भी शुभाशुभ या हिताहित करने में समर्थ नहीं हैं । (श्री नवग्रह शांति विधान - पृष्ठ ७) कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा है -
एवं पेच्छतो वि हु गह-भूय पिसाय जोइणी जक्खं । सरणं मण्णइ मूढो सुगाढ - मिच्छत्त भावादो ||२७|| भावार्थ - मनुष्य देखता है कि संसारमें कोई शरण नहीं है, एक दिन सभीको
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मृत्युके मुखमें जाना पड़ता है, इस विपत्तिसे उसे कोई भी नहीं बचा सकता । फिर भी उसकी आत्मामें मिथ्यात्वका ऐसा प्रबल उदय है, कि उसके प्रभावसे वह अरिष्ट निवारणके लिये ज्योतिषियों के चक्कर में फँस जाता है, और सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु और केतु नामके ग्रहोंको तथा भूत, पिशाच, चण्डिका वगैरह व्यन्तरोंको शरण मानकर उनकी आराधना करता है ।
जिसने किसी को रोग नष्ट करने के लिए कुदेवादि की पूजा बताकर, किसी रोगी को ग्रह-नक्षत्र का भय दिखाकर उसका धन (नवग्रह अथवा कालसर्प योग निवारण विधान आदि ) ग्रह-दान (पूजा) में नष्ट कराया है इत्यादि कुभावों से भवान्तर में वह मनुष्य होने पर उसका भी धन रोग के निमित्त से नष्ट होता ही है । (सुदृष्टि तरंगिणी ( प्रश्नमाला कर्मविपाक ) - पृष्ठ ७० )
लक्ष्मी - लाभ
जो सम्यग्दृष्टि पुरुष मिथ्यादृष्टियोंके द्वारा रचित और अज्ञानी मनुष्यों के चित्तमें चमत्कार ( भक्ति) को उत्पन्न करनेवाले मणि, मंत्र-तंत्र आदिको देखकर या सुनकर उनमें धर्मबुद्धिसे रुचि (श्रद्धा) नहीं रखता वह व्यवहारसे अमूढ़दृष्टि अंगका पालक कहा जाता है। ( कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा (टीका) - ४१८, पृष्ठ ३१६)
जैनधर्म चमत्कारवादी धर्म नहीं है। उसकी जड़ अध्यात्मवाद है । ... जो लोग सम्पत्ति अथवा सांसारिक कार्यों की सिद्धि के लिए चमत्कार के पीछे लगते हैं, वे जैनधर्म का मर्म कभी नहीं समझ सकते । ऐसा करने वाले गुरु भी आत्मवंचना करने वाले हैं और उनका अनुसरण (भक्ति) करने वाले लोग भी जैनधर्म के मर्म से दूर रहेंगे । (स्वानंद विद्यामृत - पृष्ठ २१० (हिन्दी अनुवाद)) कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा है -
णय को वि देदि लच्छी ण को वि जीवस्स कुणदि उवयारं । उवयारं अवयारं कम्मं पि सुहासुहं कुणदि ।। ३१९ ।। भावार्थ - शिव, विष्णु, ब्रह्मा, गणपती, चण्डी, काली, यक्षी, यक्ष,
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