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परलोगणिप्पिवासा इहलोगे चेव जे सुपडिबद्धा । सज्झायादीसु य जे अणुट्ठिदा संकिलिट्ठमदी । । १९४९ ।। सव्वेसु य मूलुत्तरगुणेसु तह ते सदा अइचरंता । ण लहंति खवोवसमं चरित्तमोहस्स कम्मस्स ।। १९५० ।। एवं मूढमदीया अवंतदोसा करेंति जे कालं ।
ते देवदुब्भगत्तं मायामोसेण पावंति ।। १९५१ ।।
अर्थात् उनकी परिग्रहकी तृष्णा कभी तृप्त नहीं होती। अज्ञानमें डूबे रहते हैं। गृहस्थोंके आरम्भमें फँसे होते हैं, शब्द, रस, रूप, गन्ध और स्पर्शमें ममत्वभाव रखते हैं । परलोककी चिन्ता नहीं करते। इसी लोक सम्बन्धी कार्यों में लगे रहते हैं। स्वाध्याय आदिमें उद्यम नहीं करते। उनकी मति संक्लेशमय होती है। सदा मूलगुणों और उत्तरगुणोंमें अतिचार लगाते हैं। इससे उनके चारित्रमोहका क्षयोपशम नहीं होता। इस प्रकार दोषोंको दूर न करनेवाले वे मूढबुद्धि जब मरते हैं तो मायाचारके कारण अभागे देव होते हैं। (अर्थात् उनकी देवदुर्गति होती है।) (पृष्ठ ८५८) मूलाचार (टीका) में कहा है जो साधु रस आदि में आसक्त होता हुआ तंत्र-मंत्र और भूतिकर्म आदि का प्रयोग करता है, हँसी-मजाक आदि रूप बहुत बोलता है, वह इन कार्यों के निमित्त से वाहन जाति के देवों में जन्म लेता है। (पूवार्ध पृष्ठ ६९)
जो संघ, चैत्य और सूत्र (शास्त्र) के प्रति विनय नहीं करतें है और (यंत्र, मंत्र, कलश, अंगुठी, माला आदि देकर) दूसरों को ठगने में कुशल हैं, वे इन किल्विष - पाप कार्यों के द्वारा पटह आदि वाद्य बजानेवाले किल्विषिक जाति के देवों में उत्पन्न होते हैं। (पृष्ठ ७०)
सम्मत रहिद चित्तो जोइस मंतादिएहिं वट्टंतो । णिरयादिसु बहदुक्खं पाविय पविसइ णिगोदम्मि ||२ / ३५८ ।। अर्थात् जिसका चित्त सम्यग्दर्शनसे रहित है तथा जो ज्योतिष और मंत्रादिकोंसे आजीविका करता है ऐसा जीव नरकादिकोंमें बहुत दुःख पाकर निगोदमें प्रवेश करता है। (तिलोय पण्णत्ती- प्रथम खंड, पृष्ठ १०८ )
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अवन्दनीय मूलाचार प्रदीप में कहा है -
एषां पूर्वोदितांना च जातु कार्या न वन्दना । विनयाद्या न शास्त्रादि- लाभाभीत्यादिभिर्बुधैः । । ९६९ ।।
अमीषां भ्रष्टवृत्तानां ये कुर्वन्ति स्व-कारणात् । विनयादि नुतिस्तेषां क्व बोधिर्निश्चयः कथम् । । ९७० ।। अर्थात् बुद्धिमान् पुरुषों को किसी शास्त्र आदि के लोभ से या किसी भय से भी ऊपर कहे हुए पार्श्वस्थ आदि मुनियों की वन्दना कभी नहीं करनी चाहिए और न इनकी विनय करनी चाहिए ।
जो पुरुष अपने किसी भी प्रयोजन से भ्रष्ट चारित्र को धारण करने वाले इन पार्श्वस्थ मुनियों की विनय करते हैं वा इनकी वन्दना करते हैं उनके रत्नत्रय, श्रद्धा और निश्चय कभी नहीं हो सकता। (पृष्ठ १५७)
इसका कारण यह है कि जो श्रमण धर्म के अनुरागरूप संवेग में आलसी हैं, समीचीन आचार से हीन हैं, खोटे आश्रय से संपन्न हैं उनका संसर्ग नहीं करो, क्योंकि आत्मा भी ऐसे के संसर्ग से ऐसा ही हो जायेगा । आयरियत्तणमुवयाई जो मुणि आगमं ण याणंतो । अप्पाणं पि विणासिय अण्णे वि पुणो विणासेई ।। ९६५ ।।
अर्थात् - जो मुनि आगम के बिना आचरण करता है वह स्वयं को नरक आदि दुर्गतियों में पहुँचा देता है और अन्य जनों को भी कुत्सित उपदेश के द्वारा उन्हीं दुर्गतियों में प्रवेश करा देता है, इसलिए ऐसे आचार्य से भी डरना चाहिए। (मूलाचार उत्तरार्ध - पृष्ठ १४४-१४५)
इस प्रकार जिन्होंने जिनमार्ग को छोड़ रक्खा है, ऐसे अनेक कुगुरु हैं। हे भाई! तू पापोंसे बचने के लिये सर्प के समान उनका दूर से ही त्याग कर । ( प्रश्नोत्तर श्रावकाचार - ३२ / १५१ )
मूलाचार (टीका) (पूर्वार्ध) में कहा है- विरत मुनि मोहादि से असंयत माता-पिता आदि की, या अन्य किसी की स्तुति न करे। भय से या लोभ आदि से राजा (मंत्री, सेठ साहुकार
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