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समाधान - आ. देवनन्दि ने कचनेर वर्षायोग (सन १९९५) में इस प्रश्न का उत्तर इस प्रकार दिया था -
परिग्रह बढ़ा दिया भावकों ने । बढ़ाने वाले थे ही, साधुओं को बिगाड़ने वाले थे ही, साधुओं को मिटाने वाले थे ही, साधुओं को अकर्तव्य मार्ग की ओर इंगित करने वाले ये ही, साधुओं का पतन कराने वाले येही, कोई दूसरे नहीं हैं।
ये ले लो, वो ले लो । अरे, जो साध के लिए चाहिए है - एक टाइम भिक्षा, उस टाइम तो घर में रहते हो; उस समय तो कोई यहां नहीं आयेगी
और साधु को जो नहीं चाहिए है - वो परिग्रह देने के लिए दिन रात साधु के पीछे आयेंगे । महाराज ! ये लो, पर मारो थोड़ो सो भी भविष्य बता दो । साधुओं को बिगाड़ने का काम आप (गृहस्थ) करते हो। (दशधर्मामृत - पृष्ठ ६१-६२)
इससे स्पष्ट होता है कि अतिशय दुर्लभ जिनदीक्षा प्राप्त करने के बाद भी जो साधु रेडीओ, टेप, टीव्ही, समाचारपत्र, मोबाईल, कम्प्युटर, मोटर, गरम भोजन इनमें उलझ गये हैं वे जितने दोषी हैं उनसे भी अधिक दोष भक्तों का रूप लेकर उन्हें उनके संयम का पात करनेवाली ऐसी कुत्सित वस्तुएँ देनेवाले हितशत्रु गृहस्थों का है।
और मुनिचर्या का सरे-आम होम किया जा रहा है और तुम मौन बैठे हो तो क्या आप धर्मात्मा हो ?
उपाय जिसने व्यक्ति को ही धर्म मान लिया है, वह अभी धर्म से बहुत दर है । जिस जीव ने धर्म को समझा है, वह व्यक्ति के पीछे धर्म का बलिदान नहीं करता । अपितु धर्म का पक्ष ग्रहण करता है । क्योंकि उपगूहन यह नहीं कहता कि शिथिलाचार का पोषण करो; उपगूहन कहता है कि धर्म की रक्षा करो । श्रावकवर्ग एकत्रित होकर साधुओं को आगमविरुद्ध वस्तुएँ नहीं देने का निश्चय करे तथा जिनके पास ऐसी वस्तुएँ हो उन्हें उन वस्तुओं का त्याग करने के लिए बाध्य करे तो जो उच्छृखल साधु शास्त्राज्ञा के विपरीत चलने से भयभीत नहीं होकर निर्भयता से अपनी इच्छानुसार संयमघातक वस्तुओं का अधिकाधिक प्रयोग करने में ही अपनी श्रेष्ठता मानते हैं । उन्हें असहाय होकर शास्त्रविरुद्ध क्रियाएँ छोड़नी ही पड़ेगी । क्योंकि उनका सारा ठाट-बाट गृहस्थों के बल पर ही चलता है ।
इसलिए जिस गृहस्थवर्ग ने निर्दोष मुनिमार्ग को लालच में फँसाकर सुखशीलता का कुमार्ग दिखाकर अधिकतर साधुओं का अध:पतन कराया है, यह अब उसी गृहस्थवर्ग की नैतिक जिम्मेदारी भी है कि वह “अपना लोटा छानो" अथवा "जो जैसा करेगा वैसा भरेगा; हमे उससे क्या ?" ऐसी उदासीनता छोड़े और मुनियों का पुनरुत्थान करके आगमनिष्ठ एवं अपरिग्रही मुनियों को समाज में पुनः प्रतिष्ठित करें। मोक्षमार्ग के प्रति होने वाले अपलापों को सुन (और देख) कर कौन ऐसा सम्यग्दृष्टि है जो (उनका विरोध किये बिना) निर्विकल्प बैठा रहेगा ? (आर्यिका, आर्यिका है - पृष्ठ ५०)
स्थितिकरण उपगृहन की चर्चा तो सब करते हैं। परन्तु उस समय यह भूल जाते हैं कि सम्यग्दर्शन के आठ अंगों में एक स्थितिकरण अंग भी है, जिसका अर्थ रत्नत्रय से डिगते हवे जीव को पुनः रत्नत्रय में स्थिर करना है।
भ, महावीरने कहा है कि पंचम कालमें अन्ततक धर्म रहेगा । मैं इस बातपर कदापि अविश्वास नहीं करता । परन्तु मैं सोचता हूँ कि आज जैनोंकी जो अवनति हो रही है, क्या ऐसेही जर्जर मृतवत् स्थितिमें दिगम्बर धर्म जिन्दा रहेगा ? क्या विश्वधर्मप्रचारक हमारे आचार्य इसकी अवमानना देखतेही रहेंगे ? क्या होगा इस जैन धर्मका ? (सुप्त शेरों ! अब तो जागो - पृष्ठ २८)
यदि यह चारित्रहीनता और निर्ग्रन्थ मुद्रा के संरक्षण के प्रति हम ऐसे ही उदासीन रहेंगे तो फिर मुनि निर्ग्रन्थ अर्थात अपरिग्रही होते हैं यह बात केवल शास्त्रों में ही रह जायेगी । जिन शासन और निर्ग्रन्थ मुनिमुद्रा की विडम्बना को क्या घों ही सब देखते-सुनते रहेंगे ? अपरिग्रहता
- कड़वे सच ..................-११ -
.... कड़वे सच
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