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उपगृहन तो आप लोगों ने कर लिया लेकिन स्थितिकरण नहीं किया तो आपने पाप कर लिया; क्योंकि उपगूहन तो शिथिलाचार का किया गया। पर आपने उपगृहन के साथ स्थितिकरण नहीं किया तो आपने शिथिलाचार का पोषण ही किया । (पुरुषार्थ देशना - पृष्ठ १००)
सम्यक्त्व और व्रत आदि से भ्रष्ट होते हुए मनुष्य को फिर से उसी में स्थिर कर देना ही स्थितिकरण अंग है । (तीर्थंकर बनने का मन्त्र - पृष्ठ ६) अर्थात् सम्यग्दृष्टि मनुष्य चारित्र से च्युत हो रहे मुनियों को समझाकर उन्हें पुनः चारित्र में स्थिर करने का यथासंभव प्रयत्न करता है।
धार्मिक विश्वास या धर्माचरण से कोई शिथिल होता हो तो होने देना, उसे धर्म मे दृढ़ न करना अस्थितिकरण (नाम का दोष) है। (तीर्थंकर बनने का मन्त्र - पृष्ठ ९) अथवा स्थितिकरण रूप परिणाम का अभाव ही अस्थितिकरण है । यह सम्यग्दर्शन का दोष है । अर्थात् रत्नत्रय से च्युत हो रहे जीव को पूनः रत्नत्रय में स्थिर करने का प्रयत्न नहीं करने से सम्यग्दर्शन को मलिन करनेवाला अस्थितिकरण दोष उत्पन्न होता है।
गृहस्थ भी समझा सकते हैं धर्मप्रेमी गृहस्थों का यह कर्तव्य है कि वे साधुवेष धारण करके भी परिग्रह रखनेवाले इन सुखलोलुप साधुओं को समझायें कि साधपद धारण करके उनको अब सुई के नोंक के बराबर भी परिग्रह नहीं रखना चाहिये । क्योंकि नौवीं प्रतिमा से लेकर आगे मुनिपदपर्यन्त परिग्रह के लिये कोई स्थान नहीं है।
भगवती आराधना (टीका) में कहा है - जो मुनि मार्गसे प्रष्ट हो जाते हैं, विवेकी जन उन्हें सन्मार्ग दिखलाते हैं। (पृष्ठ ८१४)
इसलिए हम सामान्य गृहस्थ होकर भी मुनियों को कैसे समझायें ऐसा भी नहीं सोचना चाहिये क्योंकि सागार धर्मामृत में श्रावकों के कर्तव्यों में मुनियों के रत्नत्रय का उत्थान करने का प्रयत्न भी सम्मिलित किया गया है । यथा
जिनधर्म जगबन्धुमनुबद्धमपत्यवत् । यतीजनयितुं यस्येत्तथोत्कर्षयितुं गुणैः ।।२/७१।।
अर्थात् - सभी प्राणियोंके लिये उपकारक ऐसे जिनधर्मकी परंपरा चलानेके लिये मुनियोंको उत्पन्न करने तथा विद्यमान मुनियोंको गुणोंसे समृद्धउत्कृष्ट करनेके लिये विवेकी श्रावकको उसी प्रकार प्रयत्नशील होना चाहिये, जिस प्रकार वह अपनी संतान को गुणी बनानेका प्रयत्न करता है।
श्रेयो यत्नवतोऽस्त्येव कलिदोषाद् गुणधुतौ ।
असिद्धावपि तत्सिद्धौ स्वपरानुग्रहो महान् ।।२/७२।। अर्थात - पंचमकालके अथवा पापकर्मके दोषसे मनियों के गणोंमें विशेषता लानेके प्रयत्नके सार्थक नहीं होनेपर भी जो प्रयत्न करता है, उसका कल्याण अवश्य होता है। और यदि उसमें सफलता मिलती है तो उस प्रयत्नके करनेवाले मनुष्यका तथा साधर्मीजनों और जनसाधारणका महान् लाभ होता है । (पृष्ठ १११)
अन्यथा, प्रायः बहुमत का परिणाम यही तो होता है कि, पात्र ही अपात्र की कोटि में आता है। (मक माटी - पृष्ठ ३८२)समय रहते ही उसे रोकने का प्रयल नहीं किया गया तो जैन साधु और जैनेतर महंतों में केवल वस्त्र का ही भेद रह जायेगा और भगवान महावीर का पवित्र निर्ग्रन्थ मार्ग हमारी आँखों के सामने दूषित होकर नष्टप्राय होता हआ नजर आयेगा।
इसलिए आ. सुविधिसागर समाज को जगाने के लिए कहते हैं - यदि हमारे समाजके कर्णधार समय रहते हुए नहीं चेते तो ऐसा न हो जाय कि जैन धर्म कलंकित रूपसे जीनेको मजबूर हो जाए । ...
कही ऐसी स्थिति न आवे इस हेतुसे कोई सशक्त कदम उठाया जाना आज निहायत जली है। (सुप्त शेरों ! अब तो जागो - पृष्ठ १७७)
अपने अन्तिम वर्षायोग (सन १९९९) की स्थापना के अवसर पर आ. आर्यनन्दि ने भी समाज को सावधान किया था-"समाजानं संघटित राहून अनाचाराचा कसून विरोध करावा. अन्यथा साधू आणि श्रावक दोघांचंही चारित्र्य धोक्यात येईल." (हाचि साध ओळखावा ! आचार्यश्री आर्यनंदी - पृष्ठ ६४)
अर्थात् - समाज संघटित रूप से अनाचार का विरोध करे। अन्यथा साधु और श्रावक दोनों का भी चारित्र खतरे में होगा ।
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