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क्षुल्लिका पदधारी सभी त्यागियों को शास्त्रों में कहे अनुसार सभी परिग्रह का सम्पूर्ण त्याग करना अनिवार्य है। अन्यथा उनको सच्चे साधु ही नहीं कहा जा सकता।
फिर भी परिग्रह के पंक में फंसते हुए त्यागियों को देखकर खीजते हुए आ. देवनन्दि कहते हैं - परिग्रह ही बुराइयों की जड़ है । भ, महावीर स्वामी ने त्याग की बात कही किन्तु हम परिग्रह जोड़कर चलते हैं । (प्रज्ञा प्रवाह - पृष्ठ
विचार कीजिए - धर्म को भौतिकवाद से उतना अधिक खतरा नहीं है, जितना धर्म का लिबास पहने हुए अधर्म से और मुनिपद का चोला मात्र ओढ़े हए सूखशील और धनलोलपी पीछीधारियों से है। यह कट सत्य है कि अर्थ की आंखे परमार्थ को देख नहीं सकती. अर्थ की लिप्सा ने बड़ों-बड़ों को निर्लज बनाया है। (मूक माटी - पृष्ठ १९२)
जिसको मुनि त्यागे तुच्छ जान, वे उसे मानते हैं महान । उसमें ही निशदिन रहें लीन, वे धन-संचय में ही प्रवीण ।।
परन्तु हे मुनिराज ! अपने मन में धन की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए। यदि आपके मन में धन की आकांक्षा उत्पन्न हो जाये तो फिर गार्हस्थ्य और मुनिपद में अन्तर ही क्या रहा ? (सजनचित्तवल्लभ - पृष्ठ १२) जब तक धन की आकांक्षा है, धन की महिमा गायी जा रही है। तब तक धर्म की बात प्रारंभ नहीं हुई है । (समग्र खण्ड ४ (प्रवचन पर्व)- पृष्ठ ३०७)
इसी लिए आ. विशुद्धसागर स्पष्ट शब्दों में कहते हैं - जिन-दीक्षा का उद्देश्य ही निश्चय-धर्म की सिद्धि करना होता है। वे अज्ञ जीव हैं जो जिन-दीक्षा की महिमा जाने बिना जिनदीक्षा धारण कर अन्य रागी-द्वेषी जीवों जैसी प्रवृत्ति कर रहे हैं । तीर्थेश के वेष में भिखारी जैसी प्रवृत्ति करना मुनिमुद्राधारी को शोभा नहीं देता । (समाधितंत्र अनुशीलन - पृष्ठ २७९) वीतराग भाव के स्थान पर जो वित्त में राग कर रहे हैं वे नमोस्तु शासन के शत्रु हैं । (पृष्ठ १४५)
उनके लिए आ. कुशाग्रनन्दी चौबीस वन्दनमाला में कहते हैं -
मान-प्रतिष्ठा हो गयीं, इससे अपना काम । धर्मद्रोह का भय नहीं, प्रिय लगता है दाम ।।९/४।।
(बुद्धि साम्राज्य - पृष्ठ ५०६) ऐसे धनेच्छक साधुवेषधारियों को राष्टसन्त तरुणसागर के इशारे पर ध्यान देना चाहिये कि लक्ष्मी भरोसा करने के काबिल नहीं है। वह तो चंचला है । आज यहाँ और कल वहाँ | जिस-जिसने भी इस पर भरोसा किया आखिर में वह रोया है । (कड़वे प्रवचन भाग-१, पृष्ठ १४)
इससे आगे बढ़ते हुए आ. पुष्पदन्तसागर कहते हैं - धन-संपत्ति एक कचरा है । कचरा भरकर जीने में भी सार नहीं है । (अमृत कलश - पृष्ठ ८८) अगर परमात्मा का आनन्द लेना है तो धन बटोरने की तृष्णा को छोड़ो । अपरिग्रह के भाव को जगाओ और मनकी वासना को शून्य करो । (चल हंसा उस पार - पृष्ठ ११०-१११)
विभाजन की ओर इस बात को नजरअंदाज नहीं करना चाहिये कि परिग्रह-ग्रहण और उसका समर्थन करने की प्रवृत्ति के कारण ही मूलसंघ से श्वेताम्बरों की उत्पत्ति होकर जैन धर्म दो टुकड़ों में बट गया था। आज हम पुनः एक नये विभाजन की ओर जा रहे हैं- निर्ग्रन्थ मुनि और सग्रन्थ मुनिवेषधारी अर्थात् परिग्रही साधु । परन्तु ध्यान रखना चाहिए कि वह गृहस्थ कौड़ी का नहीं, जिसके पास कौड़ी भी न हो और वह साधु भी कौड़ी का भी नहीं जिसके पास कौड़ी भी हो।
चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागर महाराज कहते थे - "ऐसे साधुको पैसा (आदि) देनेवाला पहले दुर्गतिमें जाता है।" ठीक ही है! धर्मविरुद्ध कार्य का फल दुर्गति ही है। इसलिए-लोकमत के पीछे मत दौड़ो, नहीं तो भेड़ों की तरह जीवन का अन्त हो जायेगा । (समग्र खण्ड ४ (प्रवचनामृत) - पृष्ठ ५१)
जिम्मेदार कौन ? प्रश्न- वर्तमान साधुओं के पास जो परिग्रह और ऐशो-आराम के साधन दिख रहे हैं, उसका जिम्मेदार कौन है ?
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कड़वे सच ....... . . . . . . . . . . . . . . .
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कड़वे सच
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