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________________ २. जैनधर्म के सम्प्रदाय एवं उप सम्प्रदाय प्रस्तावना : जैनविद्या के अध्ययन के जो प्रमुख आयाम हैं उसमें से एक आयाम ऐतिहासिकता' का है। जैनधर्म के इतिहास का विचार भी कई दृष्टियों से किया जा सकता है। भगवान् महावीर के काल में एकसंध या एकरूप रहा जैनधर्म, कौनकौनसी सदियों में किस-किस प्रकार सम्प्रदायभेद, पंथभेद और संघभेद में बँटा' - इसकी जानकारी जैनहोने के नाते हमें रखनी चाहिए। विश्व का कोई भी धर्म हो उसमें कमसे कम दो भेद तो पाये ही जाते हैं । जैसे कि ख्रिश्चनों में कॅथॉल्कि और प्रॉटेस्टंट, मुस्लिमों में शिया और सुन्नी, हिंदुओं में शैव, वैष्णव, इत्यादि । इसी तरह जैनधर्म के भी प्रमुखसम्प्रदाय दो हैं - श्वेताम्बर और दिगम्बर । जिस जैन सम्प्रदाय के साधु 'श्वेत' याने धवल वस्त्र पहनते हैं, वे हैं श्वेताम्बर । निस जैन सम्प्रदाय के साधुओं के लिए 'दिक्' याने 'दिशा ही अंबर याने वस्त्र है', वे हैं दिगम्बर । अर्थात् दिगम्बसम्प्रदाय के ऐलक साधु नग्न होते हैं। भ. महावीर के समय सचेलक एवं अचेलक संघ आचारांग तथा उत्तराध्ययन नाम के प्राचीन अर्धमागधी ग्रंथों से मालूम होता है कि उनके साधुसंघ में वस्त्रसहित एवं वस्त्ररहित - दोनों प्रकार के साधु होते थे । अंतरंग-आचार पर अधिक बल होने के कारण भ. महावीर नेवस्त्रों को ज्यादा महत्त्व नहीं दिया था । अधिक कठोर आचरणवाले एकलविहारी तपस्याप्रधान साधुओं को 'जिनकल्पी' कहते थे । मृदु आचारवाले, समाजगामी, प्रवचनप्रधान तथा संघ में रहनेवाले साधुओं को स्थविरकल्पी' कहते थे। भ. महावीर के कार्यकाल में श्वेताम्बर-दिगम्बर सम्प्रदाय में भेद नहीं था । उदारमतवाद के आधारपर जैन संघ में सचेलकत्व-अचेलकत्व और जिनकल्पी-स्थविरकल्पी ये दोनों परम्पराएँ समान रूप से चलती रही। श्वेताम्बर मत के अनुसार दिगम्बर सम्प्रदाय की उत्पत्ति भ. महावीरद्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों से आंशिक रूप से मतभेद होनेवाले जैन विचारवंतों को 'निन्हव' कहा मा है । इन निन्हवों में आखरी याने आठवाँ निन्हव था - आ. शिवभूति ।। शिवभूति साधु कडक आचारवाले' थे । 'नग्न' रहना पसंद करते थे और स्त्रियों को उसी जन्म में 'मोक्षगामी' मानने के पक्ष में नहीं थे। इस मत को बोटिक' (बोडिय) मत कहा जाता था । उन्होंने अपने इस मत का खून प्रचार किया । एक सुदृढ शिष्यपरम्परा भी प्राप्त की। यह सम्प्रदाय आगे जाकर 'दिगम्बर सम्प्रदाय' नाम से प्रसिद्ध हआ। यह हकीकत ईसवी की पहली शताब्दी की कही जाती है । दिगम्बर मत के अनुसार श्वेताम्बर सम्प्रदाय की उत्पत्ति पंचम श्रुतकेवलि भद्रबाहुस्वामी के काल में मगध में बारह वर्षीय भयंकर अकाल पडा । उन्होंने अपने शिष्य संघ के साथ दक्षिण की ओर विहार किया । कुछ साधु स्थूलभद्र के नेतृत्व में वहीं रहे । दुर्भिक्ष के कारण, उन्हें भिक्षा के बारे में कुछ शिथिलाचार अपना लिये । पात्र ग्रहण करके बस्तियों में जाकर भोजन माँगने लगे । जनलज्जो क्कारण, कमर को वस्त्र का टुकडा लटकाने लगे । बारह सालों के बाद, दक्षिण में गया हुआ मूलसंघ लौटकर वापस आया । भद्रबाहु एवं स्थूलाचार्य दोनों ने, संघ से पुन: पहला मार्ग अपनाने को कहा । मगधनिवासी साधुसंग ने इन्कारकिया । कपडे के 'अर्धफालक' भी कायम रखें । धीरे धीरे यह अर्धफालक संघ उत्तरीय और अधरीय, दो श्वेत वस्त्र एवंकुछ उपकरण पास में रखने लगा । इसी संघ का नाम, आगे जाकर 'श्वेताम्बर' पड गया । दिगम्बर मत के अनुसार, यह घटना भी ईसवी की पहली शताब्दी के आसपास ही घटी।
SR No.009955
Book TitleJainology Parichaya 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNalini Joshi
PublisherSanmati Tirth Prakashan Pune
Publication Year2012
Total Pages47
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size254 KB
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