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के आचरण की शिक्षा दी है । इसलिए समिति तथा गुप्तियों का पालन करना, धर्म का पालन ही है ।
(४) णाणस्स दंसणस्स य सारो ---
ज्ञान और दर्शन का रूपांतर अगर चारित्रपालन में नहीं हुआ तो ये दोनों रत्न सार्थक (meaningful) नहीं होते । इसी वजह से यथाख्यात' याने संपूर्ण चारित्रपालन को ज्ञान और दर्शन का सार कहा है । लेकिन आचरण कपालन भी अपने आप में ध्येयरूप नहीं है । अंतिम साध्य तो निर्वाणप्राप्ति ही है । आचरण से जब निर्वाणप्राप्ति का प्रयत्न होता है तभी वह सार्थक होता है।
(५,६,७) प्राचीन जैन ग्रंथों में, जैनशास्त्र के आधारभूत स्कंध एवं स्तंभ चार बताएँ गये हैं । ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप इन चारों को चतुर्विध आराधना कहा है । जैन परंपरा में जब 'त्रिरत्नों' की संकल्पना दृढमूल हुई तब तप' की गणना ‘चारित्र' के अंतर्गत की जाने लगी । इस प्रकार आराधना के तीन स्तंभ निर्दिष्ट होने लगे । कुछ अचार्यों ने चार
आराधनाओं का संक्षेप दो में किया है । ज्ञान का अंतर्भाव दर्शन में किया तथा तप का अंतर्भाव चरण (चारित्र) में किया । भगवती आराधना ग्रंथ ने चारित्रसाधना को सर्वोच्च स्थान प्रदान किया । ज्ञान, दर्शन और तप का अंतर्भव इस ग्रंथ में चारित्र में ही किया गया ।
इस प्रकार आराधना एक है, दो है, तीन है और चार भी है ।
१०) नाणेण जाणई भावे ---
उत्तराध्ययनसूत्र की इस गाथा में चार प्रकार की आराधना अभिप्रेत है । हर एक आराधना का कार्यक्षेत्र भी निर्दिष्ट किया है । ज्ञान के द्वारा ही व्यक्ति षड्द्रव्य एवं नौ तत्त्वों को अच्छी तरह जानता है । षड्द्रव्य एवं नौ तत्त्व realities है इसलिए उन्हें 'भाव' कहा है । श्रद्धा (सम्यक्त्व) के पहले का ज्ञान केवल शाब्दिक ज्ञान (verbal knowledge) होता है । सम्यक्दर्शन से ज्ञान को भी सम्यक्त्व प्राप्त होता है । चारित्र में मुख्यत: गुप्ति और समितियों का अंतर्भाव होता है । इसलिए चारित्र का कार्य सभी प्रवृत्तियों पर रोक लगाना है । आत्मा की उत्तरोत्तर विशुद्धि करना, तप का प्रमुख प्रयोजन है । इस प्रकार ज्ञान से जानने का, दर्शन से श्रद्धा रखने का, चारित्र से संयमन करेनका और तप से शुद्धि का कार्य होता है । इस प्रकार ये चारों मोक्षप्राप्ति में सहायक होते हैं ।
११) नाणं च दंसणं चेव ---
हमने पढा ही है कि, 'जीवो उवओग लक्खणो' अर्थात् उपयोग याonsciousness यह जीव का अनन्यसाधारण (unique) लक्षण है । जीव एक द्रव्य है । हर द्रव्य के गुण और पर्याय होते हैं । ज्ञान आत्मा का प्रमुख गुण है । दर्श, चारित्र, तप और वीर्य आत्मा के कुछ भाव या पर्याय (modes, modifications) है । जीव के स्वरूप पर अधिक प्रकाश पडने के लिए, उसका गुणपर्याय सहित लक्षण देना उत्तराध्ययन ने आवश्यक समझा होगा । इसलिए यहाँ ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग इन छहों का निर्देश है ।
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स्वाध्याय-५ १) कौनसी आठ बातों को चारित्राराधना कहा है ? (एक वाक्य) (गाथा १ भावार्थ) २) आठ प्रवचनमाताएँ कौनसी है और क्यों ? (दो वाक्य) (गाथा १ भावार्थ) ३) यथाख्यात चारित्र किसका सार है और निर्वाण किसका सार है ? (दो वाक्य) (गाथा ४) ४) 'आराधना एक, दो, तीन तथा चार है' - स्पष्ट कीजिए । (पाँच-छह वाक्य) (गाथा ५,६,७ भावार्थ) ५) जीव के कौनसे छह लक्षण उत्तराध्ययन में निर्दिष्ट है ? (एक वाक्य) (गाथा ११ अर्थ)
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