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.. (i) पंचमेरु का जिनालय : [श्री ऋषभदेव भगवान - ९ इंच]
इस पंचमेरु जिनालय की रचना अत्यन्त रमणीय है। इसमें चार तरफ के चार कोने में धातकी खंड के दो मेरु और पुष्करार्धद्वीप के दो मेरु तथा मध्य में जंबूद्वीप का एक मेरु इस तरह पांच मेरूपर्वत की स्थापना की गयी है। जिसमें प्रत्येक मेरु पर चतुर्मुखी प्रतिमायें पधरायी गयी हैं, जिनकी प्रतिष्ठा वि.सं. १८५९ में की गयी हैं ऐसा लेख है। (ii) अदबदजी का जिनालय : [ऋषभदेव भगवान - १३८ इंच]
पंचमेरु के जिनालय से बाहर निकलकर मेरकवशी के मुख्य जिनालय में प्रवेश करने से पहले बायें हाथ पर श्री ऋषभदेव भगवान की पद्मासन मुद्रा में बिराजित महाकायप्रतिमा को देखते ही शत्रुजय गिरिराज की नव ढूंक में बिराजमान अदबदजी दादा का स्मरण होने से इस जिनालय को भी अदबदजी का जिनालय कहा जाता है। यह प्रतिमा श्यामवर्ण के पाषाण से बनी है
और इस पर श्वेतवर्ण का लेप किया गया है। अजैन इस प्रतिमा को भीमपुत्र घटोत्कच अथवा घटीघटुको के नाम से पहचानते हैं। इस मूर्ति की बैठक में आगे २४ तीर्थकर परमात्मा की मूर्तिवाला वि.सं. १४६८ में प्रतिष्ठा के एक लेखयुक्त पीलापाषाण
(iii) मेरकवशी का मुख्य जिनालय : [सहस्त्रफणा पार्श्वनाथ भगवान - २९ इंच]
इस जिनालय के मुख्यद्वार में प्रवेश करते ही छत में विविध कलाकृति युक्त बारीक कारीगरी आश्चर्यकारी लगती है। घुम्मट की कारीगरी देखते ही देलवाडा के विमलवसही और गुणवसही के स्थापत्यों की याद ताजी हो जाती है। इस बावनजिनालय के मूलनायक श्री सहस्त्रफणा पार्श्वनाथ भगवान है, जिनकी प्रतिष्ठा वि.सं. १८५९ में प.पू. आ. जिनेन्द्रसूरि महाराज साहेब ने करवायी। इस बावनजिनालय की प्रदक्षिणा भूमि में बायीं ओर से घुमने पर पीले पत्थर में वि.सं. १४४२ में खुदवाई हुई चौवीश तीर्थंकरों की मूर्तियोंवाला अष्टापदजी का पट है। आगे मध्य भाग में जो बडी देवकुलिका आती है, उसमें अष्टापदजी का जिनालय बनाया गया है। जिसमें चत्तारी-अट्ठ-दस-दोय इस तरह चार दिशा में क्रमश: ४-८-१०-२ प्रतिमाजी पधराकर अष्टापद की रचना की गयी है। वहाँ से आगे मूलनायक के ठीक पीछे की देवकलिका में श्री महावीर स्वामी बिराजमान हैं। वहाँ से उत्तर दिशा की तरफ आगे बढ़ते हुए प्रत्येक देवकुलिका के आगे की चौक की छत में अत्यन्त मनोहार कारीगरी मन को खुशकारक बनती है। आगे उत्तरदिशा की तरफ, मध्य में स्थित बडी देवकुलिका में श्री शांतिनाथ भगवान की चतुर्मुखी प्रतिमाजी बिराजमान
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