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गए । वरुणशेठ जोर-जोर से बोलने लगा कि "बीतरागी को राग के साधनों की क्या जरूरत है ?"
श्वेताम्बरीय धनशेठ सहित सकल संघ के हृदय काप उठे। "हमारी पूजा में अंतराय करनेवाले आप कौन हो?" तब वरुणशेठ ने प्रतिकार किया, "हम दिगम्बर इस तीर्थ के मालिक है, यह तीर्थ हमारा ही है, आप तो आज की पैदाईश हो ।"
धनशेठ अत्यन्त क्रोधित हुए, अरे ! इतना बड़ा झूठ कैसे सहन किया जाय ? गिरनार पर दिगंबरों का अधिकार कब से हुआ? अरे ! यह तो श्वेतांबरों की दया कहो या करुणा कहो कि आज दिगंबरों को इस गिरनार की यात्रा करने का अवसर मिल रहा है। यह तो श्वेतांबरों का ही उपकार है।
"प्रभुजी की अंगरचना करने मात्र से प्रभुजी अगर रागी बन जाते हो तो दिगंबरों के द्वारा परमात्मा की रथयात्रा से क्या प्रभुजी वीतरागी रहते हैं? वीतरागी को रथ में बिठाने के क्यों अरमान रखने ? प्रभजी अगर अलंकारों से रागी होते हो तो प्रभु की प्रतिमा स्त्रियों के स्पर्श से वीतरागी कही जा सकती हैं ?"
वरुण शेठ के विचारों ने रौद्र स्वरूप लिया और वे बोले "खबरदार ! यदि आपको दिगंबर पद्धति से प्रभु पूजा करनी हो तो हो सकती है अन्यथा, सजा के लिए सावधान रहो !"
धनशेठ भी 'जय नेमिनाथ' के नाद के साथ कूद पडे । अरे ! प्रभु के शासन के लिए शहीद होने का मजा ही निराला होता है। आज भले ही हमारा मस्तक धड से अलग हो जाय ! हमें कोई चिंता नहीं."
देखते ही देखते श्री नेमिप्रभ का दरबार रणसंग्राम बनता हुआ देखकर उभयपक्ष के वृद्धों ने इस बात को शांत करने का प्रयत्न किया । परस्पर विचार विमर्श के अंत में निर्णय हुआ कि गिरनार के महाराजा विक्रम की राज्यसभा में उभयपक्ष की बातें रखकर महाराजा के पास से ही गिरनार के अधिकार के विषय में न्याय करना जरूरी है।
उभयपक्ष को मान्य ऐसी बात से दोनों संघ अलग हुए । एवं सभी यात्रिक तलहटी पर आए । उस समय राज्यसभा बरखास्त हो चुकी थी। फिर भी उभयपक्ष ने राज्यसभा के द्वार खटखटाए महाराजा विक्रम के राजदरबार के द्वार खोले गए। महाराजा ने दोनों पक्षों की शिकायत सुनकर परिस्थिति गंभीर होने का अनुमान लगाया । और दूसरे दिन राज्यसभा में निर्णय करने का ऐलान किया।