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तीर्थभक्ति का प्रभाव
धामणउली नामक गाँव में रहनेवाला धार नामक वह व्यापारी था । पूर्वभव के सत्कर्म के कारण पुण्यानुबंधीपुण्य के प्रभाव से इस भव में धनोपार्जन में मानो कुबेर की स्पर्धा न करता हो, इस तरह से शोभित हो रहा था । बहुत उल्लासपूर्वक अपनी धनसंपत्ति का सद्व्यय करके, अनेक लोगों को जीवनदान देते हुए, वह अपने पांचो पुत्रो के साथ संघ का अधिपति बनकर आनंदपूर्वक गिरनारजी की यात्रा करने गया । उसका संघ श्री गिरनार महातीर्थ की तलेटी के मैदान में छावणी डालकर रहा ।
गिरनार तीर्थ में रहा हुआ संघ बाइसवें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ प्रभु के दर्शन करने के मनोरथ कर रहा था । उस वक्त, उसी विस्तार में दिगंबर जैन पंथ के अनुयायी एक राजा, यह शेठ श्वेतांबर जैन पंथ के अनुयायी होने के कारण उन्हें इस गिरनार गिरिवर पर चढ़ने से रोकने लगा। प्रभु दर्शन, पूजन, स्पर्शन की कामना के साथ हर्षोल्लास से प्रयाण करनेवाले धार नामक श्रेष्ठि का संघ गिरिराज आरोहण करने का प्रयत्न करने लगा। उस समय दिगम्बर राजा की सेना द्वारा इस संघ उपर आक्रमण करने से दोनों पक्षों के बीच युद्ध शुरु हुआ। उस वक्त श्री नेमिनाथ प्रभु के प्रति अपार भक्ति से धारश्रेष्ठि के पांचो पुत्रों का सत्त्व स्फुरायमान होने से पांचो भाईयों ने अप्रतिम साहसपूर्वक युद्ध करना शुरु किया । तीर्थभक्ति के अतिशय राग से पांचों पुत्रों ने जान की बाजी लगाकर जंग खेलकर दुश्मन की सेना के अनेक सैनिकों को हराते हुए मरण की शरण में चले गए। तीर्थभक्ति के अविरल राग के प्रताप से वे पांचों पुत्र मरकर वहीं उसी क्षेत्र के अधिपति बने । तीर्थक्षेत्राधिपति के रूप में उत्पन्न हुए उन पांचों पुत्रों के अनुक्रम से १. कालमेघ, २. मेघनाद, ३. भैरव, ४. एकपद और त्रैलोक्यपद इस तरह नाम पडे । और तीर्थशत्रुओं का पराभव करते हुए उन पांचो ने पर्वत के आसपास विजय की वरमाला को ग्रहण किया।