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गुणवंत गजषदकुंड
त्रण भुवननी सरितातणा, सुरभि प्रवाहने झीलतां, जे जल फरसतां आधि-व्याधि, रोग सौना क्षय थतां, जे जल थकी जिन अर्चतां, अजरामरपद पामतां,
ए गिरनारने वंदतां, पापो बधां दूरे जतां.... सृष्टि के शृंगार स्वरूप श्रीपुर नामक नगर में शौर्य और शुरवीरता की मूर्ति के समान पथ नामक क्षत्रिय रहता था । उसकी रुपसुंदरी के अवतार समान चन्द्रमुखी पत्नी होते हुए भी जिस तरह चन्द्रमां में भी कलंक होता है उसी तरह कमनसीब के कारण अत्यन्त दुर्गंध से भरी हुई दुर्भागी ऐसी दुर्गंधा नामक पुत्री थी। पृथु अपनी पुत्री के योग्य पति की तलास में घूमता, परन्तु कोई उसका हाथ थामने के लिए तैयार नहीं था। कुछ समय के बाद सोमदेव नामक पुरुष के साथ उसका हस्तमिलाप हुआ, परन्तु दुर्गंधा के देह से सतत बहती हुई दुर्गंध से पीडित होकर सोमदेव रात के समय अत्यंत गुप्त रूप से उसका त्याग करके भाग जाता है।
दुर्भागी दुर्गंधा पति से तिरस्कृत हुई । मातापिता और परिवारजनो से भी तिरस्कार पात्र बनी, चारों तरफ सतत तिरस्कृत बनी हुई दुर्गंधा अत्यन्त उद्विग्न बनी और अशुभकर्मों का क्षय करने के लिए स्वगृह का त्याग कर तीर्थयात्रा के लिए चल पड़ी। अनेक हिन्दु तीर्थों की स्पर्शना करने पर भी उसके कर्मों का बोझ हल्का न होने के कारण उसको जीने की इच्छा नहीं थी। मरण की शरण जाने के लिए वह समुद्र की तरफ निकली । जंगल के मार्ग से गुजरते हुए एक तापस मुनि को देखकर वह नमस्कार करती है, तब वह मुनि भी तीव्रदुर्गंध से व्याप्त दुर्गंधा के प्रति दुर्भाव करता है और पराङ्मुख बनता है। तब दुर्गंधा खुद के प्रति तिरस्कार भाव से तापस मुनि को कहती है, "महात्मा ! आप जैसे रागहीन तापस भी मुझसे विमुख होंगे तो मैं किसकी शरण स्वीकारूँ? मेरे इन पापों की शुद्धि कैसे होगी?" तापस कहता है, "हे बाला ! इस वन में मेरे गुरु कुलपति हैं । तुम उनके पास जाकर अपने दुःख की बात करो । वे तुम्हारी विडंबना का उपाय बतायेंगे।"
तापस मुनि के शब्द सुनकर दुर्गंधा के शरीर में कुछ चेतना आयी । वह तापस मुनि के पीछे-पीछे कुलपति के आश्रम में जाती हैं।