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भगवान की प्रतिमा खोदी हुई है। जिसको हिन्दु धर्मी शंकराचार्य की मूर्ति कहते हैं । इन पादुकाओं की प्रदक्षिणा पूर्ण होते ही बाए हाथ की तरफ एक बडा विशालकाय घंट है जिसमें वि.सं. १८९४ की साल है। यहाँ यात्रा के लिए पधारे हुए सभी हिन्दु यात्री श्रद्धापूर्वक यह घंट बजा कर खुद की गिरनार की यात्रा पूर्ण होने का आनंद मानते हैं। अभी यह ढूंक दत्तात्रय के नाम से प्रसिद्ध है, जैन मान्यतानुसार श्री नेमिनाथ परमात्मा के श्री वरदत्त, श्री धर्मदत्त और श्री नरदत्त ऐसे तीन गणधरों के नाम के अंत में 'दत्त' शब्द होने से 'दत्तात्रय' ऐसा नाम पडा । कई लोग पादुका को श्री वरदत्त गणधर की पादुका भी कहते हैं। लगभग ६० वर्ष पूर्व इस ट्रंक का संपूर्ण संचालन शेठ देवचंद लक्ष्मीचंद की पेढी के द्वारा होता था । पहली ट्रंक से पूजारी पूजा करने के लिए आता था । अभी दत्तात्रय के नाम से प्रसिद्ध इस ढूंक का संपूर्ण संचालन हिन्दु महंत के द्वारा हो रहा है।
आज जैन मात्र दर्शन और इस पवित्र भूमी की स्पर्शना करके संतोष मानते हैं।
इस पाँचवीं ट्रॅक से नीचे उतरकर मुख्य सीढी पर आकर वापिस जाने के रास्ते से जाने के बदले बाएं हाथ की तरफ लगभग ३५० सीढियाँ उतरते ही 'कमंडलकुंड' नामक स्थान आता है। * कमंडल कुंड :
इस कुंड का संचालन हिन्दु महंत के द्वारा होता है । यहाँ नित्य अग्नि की धूनी प्रगटित है। यहाँ आनेवाले प्रत्येक यात्रिक के लिए बिना मूल्य अन्नक्षेत्र चलता है, जहाँ नित्य सैंकड़ों यात्रिक भोजन की सुविधा प्राप्त करते हैं।
कमंडलकुंड से नैऋत्य कोने में जंगल के मार्ग से रतनबाग की तरफ जा सकते हैं। यह रास्ता विकट और देवाधिष्ठित स्थान है, जहाँ आश्चर्यकारक वनस्पतिया हैं । इस रतनबाग में रतनशिला पर श्री नेमिनाथ प्रभु के देह का अग्निसंस्कार हुआ था, ऐसा पाठ कुछ ग्रंथों में देखने को मिलता है। श्री नेमिनाथ भगवान के साथ ५३६ महात्मा भी निर्वाण को प्राप्त हुए थे इसी कारण से उनका भी अग्निसंस्कार इसी विस्तार में हुआ होगा ऐसा स्पष्ट समझा जा सकता है ।
इस कमंडलकुंड से अनसुया की छट्ठी ट्रॅक और महाकाली की सातवीं ढूंक पर जा सकते हैं। * कालिका ढूंक :
कमंडलकुंड से कालिकाटूंक जाने का मार्ग अत्यन्त विकट और भयंकर होने से मार्गदर्शक को साथ में ले जाना हितावह
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