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(तत्त्वार्थ सूत्र
अध्याय :D कारण भूख प्यास के कारण पीडित होने से आवश्यक क्रियाओ में उत्साह न होना), स्मृत्यनुपस्थापन (आवश्यक क्रियाओं को भूल जाना), ये पाँच प्रोषधोपवास व्रत के अतिचार हैं॥३४॥
इसके बाद भोगपभोग परिमाण व्रत के अतिचार कहते हैंसचित-सम्बन्ध-सम्मिश्राभिषव-दु:पक्काहारः ।।३७||
अर्थ- सचित्त आहार (सचेतन पुष्प पत्र फल वगैरह का खाना), सचित्तसम्बन्ध आहार (सचित्त से मिली हुई वस्तु को खाना), अभिषव आहार (इन्द्रियों को मद करनेवाली वस्तु को खाना), दुष्पक्काहार (ठीक रीतिसे नहीं पके हुए भोजन को करना), ये पाँच भोगपभोग परिमाण व्रत के अतिचार हैं। इस तरह का आहार करने से इन्द्रियाँ प्रबल हो सकती हैं, शरीर में रोग हो सकता है, जिससे उपभोग-परिभोग के किये हुए परिमाण में व्यतिक्रम होने की संभावना है ॥३५॥ क्रम प्राप्त अतिथि संविभाग व्रत के अतिचार कहते हैंसचित्तनिक्षेपापिधान-परव्यपदेश- मात्सर्य
कालातित्र मा: ||३६|| अर्थ - सचित्तनिक्षेप (सचित्त कमल के पत्ते वगैरह पर रख कर आहार दान देना), सचित्त अपिधान (आहार को सचित्त पत्ते वगैरह से ढक देना), परव्यपदेश (स्वयं दान न देकर दूसरे से दिलवाना अथवा दूसरे का द्रव्य उठा कर स्वयं दे देना), मात्सर्य (आदर पूर्वक दान न देना अथवा अन्य दाताओं से ईर्ष्या करना), कालातिक्रम (मुनियों को अयोग्य काल में भोजन कराना), ये पाच अतिथि-संविभाग व्रत के अतिचार हैं ॥३६॥
अन्त मे सल्लेखना के अतिचार कहते हैं
(तत्त्वार्थ सूत्र ****
***4 अध्याय - जीवित-मरणाशंसा-मित्रानुराग
सुखानुबन्ध-निदानानि ||३७।। अर्थ- जीविताशंसा (सल्लेखना करके जीने की इच्छा करना), मरणाशंसा (रोग आदि के कष्ट से घबरा कर जल्दी मरने की इच्छा करना), मित्रानुराग (जिनके साथ खेले थे उन मित्रों का स्मरण करना), सुखानुबन्ध (भोगे हुए सुखों को याद करना), निदान (आगे के भोगों की चाह होना), ये पाँच सल्लेखना के अतिचार हैं ॥३७॥ अब दान का लक्षण कहते हैं
अनुग्रहार्थ स्वस्यातिसर्गो दानम् ।।३८|| अर्थ- अपने और दूसरों के उपकार के लिए धन वगैरह का देना सो दान है। अर्थात् दान देने से दाता को पुण्य बन्ध होता है और जिसे दान दिया जाता है उस पात्र के धर्म साधन में उससे सहायता मिलती है। इन्हीं दो भावनाओं से दिया गया दान वास्तव मे दान है ॥३८॥ दान के फल मे विशेषता कैसे होती है सो बतलाते हैं - विधि-द्रव्य-दातृ-पात्रविशेषातद्विशेषः ||३९||
अर्थ-विधि द्रव्य, दाता और पात्र की विशेषता से दान मे विशेषता होती है। आदरपूर्वक नवधा भक्ति से आहार देना विधि की विशेषता है। तप, स्वाध्याय आदि में जो सहायक हो ऐसा सात्विक आहार आदि देना द्रव्य की विशेषता है। किसी से ईर्ष्या न करना, देते हुए खेद न होना आदि दाता की विशेषता है और पात्र का विशिष्ट ज्ञानी, ध्यानी और तपस्वी होना, ये पात्र की विशेषता है। इन विशेषताओं से दान मे विशेषता होती है। और दान में विशेषता होने से उसके फल में विशेषता होती है।॥३९॥
इति तत्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे सप्तमोऽध्याय: ॥७॥
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