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(तत्त्वार्थ सूत्र ++******++++++++अध्याय अन्य व्रतों में दिग्विरति के अतिचार कहते है
र्ध्वाधस्तिर्यग्व्यतिक्रम- क्षेत्रवृद्धि - स्मृत्यन्तराधानानि
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अर्थ - ऊर्ध्वातिक्रम, अधोऽतिक्रम, तिर्यगतिक्रम, क्षेत्रवृद्धि और स्मृत्यन्तराधान ये पाँच दिग्विरति व्रत के अतिचार हैं ।
विशेषार्थ - दिशाओं की परिमित मर्यादा के लाँघने को अतिक्रम कहते हैं। संक्षेप से उसके तीन भेद हैं- पर्वत या अमेरिका के ऐसे ऊँचे मकान वगैरह पर चढ़ने से ऊर्ध्वातिक्रम अतिचार होता है। कुएँ वगैरह में उतरने से अधोऽतिक्रम होता है और पर्वत की गुफा वगैरह में चले जाने से तिर्यगतिक्रम होता है। दिशाओं का जो परिमाण किया है, लोभ में आकर उससे अधिक क्षेत्र में जाने की इच्छा करना क्षेत्रवृद्धि नाम का अतिचार है की हुई मर्यादा को भूल जाना स्मृत्यन्तराधान है ॥ ३० ॥
इसके बाद देशव्रत के अतिचार कहते हैं - आनयन-प्रेष्यप्रयोग-शब्द-रूपानुपात - पुद्गलक्षेपाः ||३१||
अर्थ- आनयन (अपने संकल्पित देश में रहते हुए मर्यादा से बाहर के क्षेत्र की वस्तु को किसी के द्वारा मंगाना), प्रेष्य प्रयोग (मर्यादा से बाहर के क्षेत्र में किसी को भेजकर काम करा लेना), शब्दानुपात (मर्यादा से बाहर के क्षेत्र में काम करने वाले पुरुषों को लक्ष्य करके खांसना वगैरह, जिससे वे आवाज सुनकर जल्दी जल्दी काम करें, रूपानुपात ( मर्यादा के बाहर काम करने वाले पुरुषों को अपना रूप दिखाकर काम कराना), पुद्गलक्षेप (मर्यादा के बाहर पत्थर वगैरह फेंककर अपना काम करा लेना) ये पाँच देशविरति व्रत के अतिचार हैं ॥३१ ॥
आगे अनर्थ दण्ड विरति व्रत के अतिचार कहते हैं - कन्दर्प- कौत्कुच्य- मौ खर्या समीक्ष्याधिकरणोपभोग
परिभोगानर्थक्यानि ||३२||
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ऊ
तत्त्वार्थ सूत्र +
+ +अध्याय
अर्थ - कन्दर्प ( राग की अधिकता होने से हास्य के साथ अशिष्ट वचन बोलना ), कौत्कुच्य (हास्य और अशिष्ट वचन के साथ शरीर से भी कुचेष्टा करना ), मौखर्य (धृष्टतापूर्वक बहुत बकवास करना ), असमीक्ष्याधिकरण( बिना विचारे अधिक प्रवृति करना ), उपभोगपरिभोगानर्थक्य ( जितने उपभोग और परिभोग से अपना काम चल सकता हो उससे अधिक का संग्रह करना) ये पाँच अनर्थदण्डविरति व्रत के अतिचार हैं ॥३२॥
क्रम प्राप्त सामायिक के अतिचार कहते हैंयोगदुष्प्रणिधानानादर- स्मृत्यनुपस्थानानि ||३३||
अर्थ - काय दुष्प्रणिधान (सामायिक करते समय शरीर को निश्चल न रखना), वाग्दुष्प्रणिधान ( सामायिक के मंत्र को अशुद्ध और जल्दी जल्दी बोलना ), मनो दुष्प्रणिधान, (सामायिक में मन को न लगाना), अनादर (अनादर पूर्वक सामायिक करना), स्मृत्यनुपस्थापन ( चित की चंचलता से पाठ वगैरह को भूल जाना) ये पाँच सामायिक के अतिचार हैं ||३३||
आगे प्रोषधोपवास व्रत के अतिचार कहते हैं
अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्गादान
संस्तरो पक्र मणानादर - स्मृत्यनुपस्थानानि ||३४||
अर्थ - अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित उत्सर्ग ( जन्तु हैं या नहीं, यह बिना देखे और भूमि को कोमल कूंची वगैरह से बिना साफ किये जमीन पर मल मूत्र वगैरह करना), अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित आदान (बिना देखे और बिना शोधे पूजा की सामग्री और अपने पहिनने के वस्त्र वगैरह उठा लेना), अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित संस्तरोपक्रमण (बिना देखी और बिना साफ की हुई भूमि पर चटाई वगैरह बिछाना), अनादर (उपवास के
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