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DIVIPULIBOO1.PM65 (109) (तत्त्वार्थ सूत्र ************** अध्याय - चर्या, शय्या और निषद्या में से एक ही होगी। अतः तीन के कम हो जाने से शेष उन्नीस परीषह एक साथ एक व्यक्ति में हो सकती हैं ॥१७॥ अब चारित्र के भेद कहते हैं -
सामायिक-छेदोपस्थापना-परिहारविशुद्धिसूक्ष्मसाम्पराय-यथा-खयातमिति चारित्रम् ||१८||
अर्थ - सामायिक, छेदोपस्थापना, परीहारविशुद्धि, सूक्ष्म साम्पराय और यथाख्यात, इस तरह पाँच प्रकार का चारित्र है। समस्त सावद्ययोग का एक रुप से त्याग करना सामायिक चारित्र है। सामायिक चारित्र से डिगने पर प्रायश्चित के द्वारा सावध व्यापार में लगे हुए दोषों को छेद कर पुनः संयम धारण करना छेदोपस्थापना चारित्र है अथवा समस्त सावध योग का भेद रूप से त्याग करना छेदोपस्थापना चारित्र है। अर्थात मैंने समस्त पाप कार्यों का त्याग किया; यह सामायिक चारित्र का रूप है और मैने हिंसा, झठ, चोरी, कशील और परिग्रह का त्याग किया, यह छेदोपस्थापना चारित्र का रूप है । जिस चारित्र में प्राणी हिंसा की पूर्ण निवृति होने से विशिष्ट विशुद्धि पायी जाती है उसे परिहार विशुद्धि कहते हैं । जिसने अपने जन्म से तीस वर्ष की अवस्था तक सुख पूर्वक जीवन बिताया हो, और फिर जिन दीक्षा लेकर आठ वर्ष तक तीर्थंकर के निकट प्रत्याख्यान नाम के नौवें पूर्व को पढ़ा हो और तीनों सन्धया कालों को छोड़ कर दो कोस विहार करने का जिसके नियम हो, उस दुर्द्धर चर्या के पालक महामुनि को ही परिहार विशुद्धि चारित्र होता है। इस चारित्र वाले के शरीर से जीवों का घात नहीं होता इसी से इसका नाम परिहार विशुद्धि है।अत्यन्त सूक्ष्म कषाय के होने से सूक्ष्म साम्पराय नाम के दसवें गुणस्थान में जो चारित्र होता है उसे सूक्ष्म साम्पराय चारित्र कहते हैं। समस्त मोहनीय कर्म के उपशम से अथवा क्षय से जैसा आत्मा का निर्विकार स्वभाव है वैसा ही स्वभाव हो जाना यथाख्यात चारित्र है। इस चारित्र को अथाख्यात
तत्त्वार्थ सूत्र ***************अध्याय - भी कहते हैं क्योकि अथ शब्द का अर्थ अनन्तर है और यह समस्त मोहनीय के क्षय अथवा उपशम होने के अन्तर ही होता है । तथा इसे यथाख्यात भी कहते हैं क्योंकि जैसा आत्मा का स्वभाव है वैसा ही इस चारित्र का स्वरूप है। सूत्र में जो यथाख्यात के बाद 'इति' शब्द है वह यह बतलाता है कि यथाख्यात चारित्र से सकल कर्मो का क्षय की पूर्ति हो जाती है ॥१८॥
आगे तप का कथन करते हैं । तप के दो भेद है - बाह्य तप और अभ्यन्तर तप । इनमे भी प्रत्येक के छह भेद हैं।
पहले बाह्य तप के छह भेद कहते हैंअनशानावमौदर्य- वृतिपरिसंख्यान - रसपरित्यागविविक्त शय्यासन- कायक्लेशा: बाह्य तपः ||१९||
अर्थ-अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शय्यासन, कायक्लेश ये छह बाह्य तप के भेद हैं । ख्याति, पूजा, मन्त्र सिद्धि, वगैरह लौकिक फल की अपेक्षा न करके, संयम की सिद्धि, राग का उच्छेद, कर्मो का विनाश, ध्यान तथा स्वाध्याय की सिद्धि के लिए भोजन का त्याग करना अनशन तप है। संयम को जागृत रखने के लिए, विचारों की शान्ति के लिए, संतोष और स्वाध्याय आदि की सुख पूर्वक सिद्धि के लिए अल्प आहार करना अवमौदर्य तप है। जब मुनि भिक्षा के लिए निकले तो घरों का नियम करना कि मैं आहार के लिए इतने घर जाऊँगा अथवा अमुकरीति से आहार मिलेगा तो लूंगा, इसे वृत्तिपरिसंख्यान तप कहते है। यह तप भोजन की आशा को रोकने के लिए किया जाता है।इन्द्रियों के दमन के लिए, निद्रा पर विजय पाने के लिए तथा सुखपूर्वक स्वाध्याय करने के लिए घी, दूध, दही, तेल, मीठा, और नमक का यथायोग्य त्याग करना रस परित्याग तप है । बह्मचर्य स्वाध्याय, ध्यान आदि की सिद्धि के लिए एकान्त स्थान में शयन करना तथा आसन
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