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तत्त्वार्थ सूत्र +++++++++++++++अध्याय एकादश जिने ||११||
अर्थ - चार घातिया कर्मों के रहित जिन भगवान् में वेदनीय कर्म का सदभाव होने से ग्यारह परीषह होती हैं।
शंका- यदि केवली भगवान मे ग्यारह परीषह होती हैं तो उन्हें भूख प्यास बाधा भी होना चाहियेय!
समाधान - मोहनीय कर्म का उदय न होने से वेदनीय कर्म में भूख प्यास की वेदना को उत्पन्न करने की शक्ति नहीं रहती । जैसे, मन्त्र और औषधि के बल से जिसकी मारने की शक्ति नष्ट कर दी जाती है उस विष को खाने से मरण नही होता है, वैसे ही घातिया कर्मों का नष्ट हो जाने से अनन्त चतुष्टय से युक्त केवली भगवान के अन्तराय कर्म का भी अभाव हो जाता है और लगातार शुभ नोकर्म वर्गणाओं का संचय होता रहता है। इन कारणों से निःसहाय वेदनीय कर्म अपना काम नहीं कर सकता। इसी से केवली के भूख प्यास की वेदना नही होती। फिर भी उनके वेदनीय का उदय है अतः ग्यारह परीषह उपचार से कही हैं ॥ ११ ॥
अन्य गुणस्थानो में परीषह कहते हैं
बादर साम्पराये सर्वे ||१२||
अर्थ- बादर साम्पराय अर्थात् छठे से लेकर नीचे गुणस्थान तक सब परीषह होती हैं।
विशेषार्थ - यद्यपि नौंवे गुणस्थान का नाम बादर साम्पराय है । किन्तु यहाँ बादर साम्पराय से नौवाँ गुणस्थान न लेकर 'बादर साम्पराय शब्द का अर्थ लेना चाहिये अर्थात बादर यानी स्थूल, और साम्पराय यानी कषाय का उदय होने से सभी परीषह होती हैं ॥ १२ ॥
किस कर्म के उदय से कौन परीषह होती है यह भी बतलाते हैं
ज्ञानावरणे प्रज्ञाऽज्ञाने ||१३||
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तत्त्वार्थ सूत्र + + +अध्याय
अर्थ - ज्ञानावरण के होने पर प्रज्ञा और अज्ञान परीषह होती हैं । शंका - ज्ञानावरण का उदय होने पर अज्ञान परीषह का होना तो ठीक है परन्तु प्रज्ञा का अर्थ है ज्ञान, और ज्ञान आत्मा का स्वभाव है ?
समाधान - प्रज्ञा परीषह का अर्थ है ज्ञान का मद हो तो उसे न होने देना । सो मद ज्ञानावरण के उदय में ही होता है; जिनके समस्त ज्ञानावरण नष्ट हो जाता है उनके ज्ञान का मद नहीं होता। अतः प्रज्ञा परीषह ज्ञानावरण के उदय में ही होती है ॥ १३ ॥
दर्शनमोहान्तराययोरदर्शनालाभौ
||१४||
अर्थ- दर्शन मोह के होने पर अदर्शन परीषह होती है और अन्तराय कर्म के उदय से अलाभ परीषह होती है ॥१४॥
चारित्रमोहे नाग्नायारति- स्त्री- निषद्याक्रोशयाचना-सत्कार पुरस्काराः 119811 अर्थ चारित्र मोहनीय के उदय में नाग्नय, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना, और सत्कार पुरस्कार ये सात परीषह होती हैं ॥१५॥ वेदनीये शेषाः ||१६||
अर्थ - शेष ग्यारह परीषह अर्थात क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृण स्पर्श और मल परीषह वेदनीय कर्म के उदय में होती हैं ॥ १६ ॥
एक व्यक्ति मे एक साथ कितनी परीषह हो सकती है यह बतलाते हैं
एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्नै कोनविंशते: ||१७|| अर्थ - एक जीव के एक साथ एक से लेकर उन्नीस परीषह तक हो सकती हैं ; क्योकि शीत और उष्ण में से एक समय में एक ही होगी । तथा
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