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८०] श्रीप्रवचनसारटीका । (कायचेट्ठम्मि) कायकी चेष्ठामें (छेदो) छिद या भंग (जायदि) हो जावे (पुणो तस्स ) तो फिर उस साधुकी ( आलोयणपुम्विया' किरिया) आलोचनपूर्वक क्रिया ही प्रायश्चित्त है। (छेदुवजुत्तो समणो) भंग या छेद सहित साधु (जिणमदम्मि) जिनमतमें (विवहारिण) व्यवहारके ज्ञाता (समण) साधुको (आसेज्ज) प्राप्त होकर (आलोचित्ता) आलोचना करनेपर ( तेण उवदिट्ट ) उस साधुके , द्वारा जो शिक्षा मिले सो उसे ( कायव्वं ) करना चाहिये ।
विशेपाथे-यदि साधुके आत्मामें स्थितिरूप सामायिकके प्रयत्नको करते हुए भोजन, शयन, चलने, खडे होने, बेठने आदि शरीरकी क्रियाओंमें कोई दोप होनावे, उस समय उस साधुके साम्यभावके बाहरी सहकारी कारणरूप प्रतिक्रमण है लक्षण जिसका ऐसी आलोचना पूर्वक क्रिया ही प्रायश्चित अर्थात् दोषकी शुद्धिका उपाय है अधिक नही क्योकि वह साधु भीतरमें स्वस्थ आत्मीक भावसे चलायमान नहीं हुआ है। पहली गाथाका भाव यह है । तथा यदि साधु निर्विकार स्वसंवेदनकी भावनासे च्युत होजावे अर्थात् उसके सर्वथा स्वस्थ्यभाव न रहे । ऐसे भङ्गके होनेपर वह साधु उस आचार्य या निर्यापकके पास जायगा जो जिनमतमें वर्णित व्यवहार क्रियाओंके प्रायश्चित्तादि शास्त्रोके ज्ञाता होंगे और उनके सामने कपट रहित होकर अपना दोप निवेदन करेगा। तब वह प्रायश्चित्तका ज्ञाता आचार्य उस साधुके भीतर जिस तरह निर्विकार म्वसंवेदनकी भावना होजावे उसके अनुकूल प्रायश्चित या दंड वतावेगा । जो कुछ उपदेश मिले उसके अनुकूल साधुको करना योग्य है।