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तृतीय खण्ड। [८१ . भावार्थ-यहां दो गाथाओंमें आचार्यने साधुके दोषोंको शुद्ध. करनेका उपाय बताया है । यदि साधु अन्तरङ्ग चारित्रमें सावधान है और सावधानी रखते हुए भी अपनी भावनाके विना भी किसी कारणसे बाहरी शयन, आसन आदि शरीरकी क्रियाओंमें शास्त्रोक्त विधिमें कुछ त्रुटि होनेपर संयममें दोष लग जावे तो मात्र बहिरङ्ग भङ्ग हुआ । अतरङ्ग नहीं । ऐसी दशामें साधु स्वयं ही प्रतिक्रमण रूप आलोचना करके अपने दोषोंकी शुद्धि करले, परन्तु यदि साधुके अन्तरङ्गमें उपयोग पूर्वक संयमका भंग हुआ हो तो उसको उचित है कि प्रायश्चित्तके ज्ञाता आचार्यके पास जाकर जैसे बालक अपने दोपोको विना किसी कपटभावके सरल रीतिसे अपनी माताकों व अपने पिताको कह देता है इसी तरह आचार्य महाराजसे कह देवे । तव आचार्य विचार कर जो कुछ उस दोपक्षी निवृत्तिका उपाय बतावे उसको बडी भक्तिसे उसे अंगीकार करना चाहिये । यह सब छेदोपस्थापन चारित्र है।
प्रायश्चित्तके सम्बन्धमें पं० आशावरकृत अनगारधर्मामृतमें इस तरह कथन है:
यत्वात्याकरणे वाऽवर्जने च रजोर्जितम् । सोतिचारोन तच्छुद्धिः प्रायश्चित्तं दशात्म तत् ॥३४॥ अ. ७
भावार्थ-जो पाप करने योग्य कार्यके न करनेसे व न करने योग्य कार्यको न छोड़नेसे उत्पन्न होता हो उसको अतिचार कहते हैं उस अतिचारकी शुद्धि कर लेना.सो प्रायश्चित्त है । उसके दश भेद हैं। श्री मूलाचार पंचाचार अधिकारमें भी दश भेद कहे हैं। जब कि श्री उमास्वामीकृत तत्वार्थसूत्रमें केवल ९ भेद ही कहे हैं। ..