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श्रीप्रवचनसारटोका ।
आलोचनप्रतिक्रमणतदुभयविवेकच्युत्सर्गतपच्छेदपरिहारोप
स्थापना || २२८ ॥
यद्यपि इस सूत्र में श्रद्धान नामका भेद नही है । तथापि उपस्थापनमें गर्भित है | इन १० का भाव यह है
१ आलोचना - जो आचार्यके पास जाकर विनय महित दश दोष रहित अपना अपराध निवेदन कर देना सो आलोचना है । साधु प्रातःकाल या तीसरे पहर आचार्यके पास अपना दोष कहे | वे दश दोष इस प्रकार हैं
१ आकम्पितोप- बहुत दंडके भयसे कांपता हुआ गुरुको कमंडल पुस्तकादि देकर अनुकूल वर्तन करे कि इसमे गुरु प्रसन्न होकर अल्प दंड देवें सो आकम्पित दोष है ।
२ अनुमापन दोष- गुरुके सामने अपना दोप कहते हुए अपनी अशक्ति भी प्रगट करना कि मैं महाअसमर्थ हूं, धन्य हैं वे वीर पुरुष जो तप करते हैं, इस भावसे कि गुरु कम दंड देवं सो अनुमापित डोप है ।
३ ष्टोप जिस ढोपको दूसरेने देख लिया हो उसको तो गुरुसे कहे परन्तु जो किसीने देखा न हो उसको छिपा ले सोष्ट दोष है ।
४ दरदोष - गुरुके सामने अपने मोटे २ दोषोंको कह देना किंतु सूक्ष्म दोषोंको छिपा लेना सो बादर दोष हैं ।
५ दोष- गुरुके सामने अपने सूक्ष्म दोष प्रगट कर देना परन्तु स्थूल दोषोंको छिपा लेना सो सुक्ष्मदोष है ।
६ छन्नदोष - गुरुके सामने अपना दोष न कहे किंतु उनसे