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तृतीय खण्ड।
[७E दंडको बड़े आनन्दसे लेकर अपने भावोंकी निर्मलता करते हैं । तात्पर्य यह है कि साधुको अपने अंतरंग बहिरंग चारित्रकी शुद्धिपर सदा ध्यान रखना योग्य है । जैसा मूलाचारमें अनगार भावना अधिकारमें कहा है:--
उवधिभरविप्पमुक्का वोसटुंगा णिरंवरा धीरा। णिकिरण परिसुद्धा साधू सिद्धिवि मग्गति ॥ ३०॥
भावार्थ-जो परिग्रहके भारसे रहित होते हैं, शरीरकी ममताके त्यागी होने हैं. वस्न रहित, धीर और निर्लोभी होते हैं तथा मन बचन कायसे शुद्ध आचरण पालनेवाले होते हैं वे ही साधु अपनी आत्माकी सिद्धि अर्थात् कर्मोके क्षयको सदा चाहते हैं ।।१०
उत्थानिका-आगे पूर्व सूत्रमें कहे हुए दो प्रकार छेदके लिये प्रायश्चित्तका विधान क्या है सो कहते हैं ? . पयाम्हि समारहे छेदो समणाम कायचेट्टम्मि। जायदि जदि तप पुणो आलोणपुषिया किरिया ॥११ छेदुवजुत्तो सम्णो समणं वबहारिण मिणमदम्मि । आसेज्जालोचित्ता उददिटुं तेण कायव्वं ॥ १ ॥ युगलं प्रयतायां समारवायां छेदः श्रमणस्य कायचेष्टायाम् । जायते यदि तस्य पुनरालोचनापूर्विका क्रिया ।। ११ ॥ छेदोपयुक्तः श्रमणः श्रमगं व्यवहारिणं जिनमते । आसाद्यालोच्योपदिष्टं तेन कर्तव्यम् ।। १२ ।। (युग्मम् )
अन्वय सहित सामान्यार्थः-(पयदम्हि समारडे) चारित्रका प्रयत्न प्रारम्भ किये जानेपर ( नादि.) यदि (समणस्स ) साधुकी