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श्रीप्रवचनसारटोका। करते समय (तसिं गुरुः) उन साधुओंका नो गुरुहोता है (इति) वह (पव्वज्जदायगो) दीक्षागुरु (होदि) होता है। (छेदेसूवढगा) एक देश व्रतभंग या सर्वदेश व्रत भंग होनेपर जो फिर व्रतमें स्थापित कगने वाले होते हैं (सेसा) वे सब शेप (णिज्जावयासमणा) निर्यापक श्रमण या शिक्षागुरु होते हैं।
विशेषार्थ:-निर्विकल्प समाधिरूप परम मामायिकरूप दीक्षाके जो दाता होते हैं उनको दीश गुरु कहने हैं तथा छेद दो प्रकारका है। जहां निर्विकल्प समाधिरूप मामायिकका एक देश भङ्ग होता है उसको एक देश छेद व जहां सर्वथा भङ्ग होता है उसको सर्व देश छेद कहते हैं । इन दोनों प्रकार छेदोके होनेपर. जो माधु प्रायश्चित देकर संवेग वैराग्यको पैदा करनेवाले परमागमके वचनोंसे उन छेटोंका निवारण करते हैं वे निर्यापक या शिक्षागुरु या श्रुतगुरु कहे जाते हैं। दीक्षा देनेवालेको ही गुरु कहेंगे यह अभियाय है।
भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने यह भाव झलकाया है कि दीक्षादाता गुरुके सिवाय शिष्योंकी रक्षा करनेवाले निर्यापक या शिक्षागुरु भी होते हैं । जिनके पास शिप्य अपने दोषोंके निवारणकी शिक्षा लेता रहता है और अपने दोषोंको निकालता रहता है। वास्तवमें निर्मल चास्त्रि ही अंतरङ्ग भावोंकी शुद्धिका कारण है, अतएव अपने भावोंमें कोई भी विकार होनेपर साधु उसकी शुद्धि करते हैं जिससे सामायिकका लाम यथायोग्य होवै । म्वात्मानन्दके प्रेमीको कोई अभिमान, भय, ग्लानि नहीं होती, वह वालकके समान अपने दोषोंको आचार्यसे कहकर उनके दिये हुए