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तृतीय खण्ड। - [9. उसका प्रायश्चित लेकर अपनी शुद्धि करके फिर मूलगुणोंके यथार्थ · पालनमें सावधान होनाता है ऐसे साधुको छेदोपस्थापक कहते हैं ।
.. वृत्तिकार श्री जयसेनआचार्यने ऐसाभाव झलकाया है कि निश्चय । आत्मस्वरूपमें रमणरूप सामायिक ही निश्चय मूलगुण है, जब ‘आत्मसमाधिसे च्युत हो जाता है तब वह इस २८ विकल्प रूप या भेदरूप चारित्रको पालता है जिसको पालते हुए निर्विकल्प समाधिमें पहुंचनेका उद्योग रहता है । निश्चय सामायिकका लाभ शुद्ध सुवर्ण द्रव्यके लाभके समान है । व्यवहार मूलगुणोंमें वर्तना' अशुद्ध सुवर्णकी कुण्डलादि अनेक पर्यायोंके लाभके समान है । • प्रयोजन यह है कि निश्चय चारित्र ही मोक्षका बीज है । यही
साधुका भावलिंग है, अतएव जो अभेद रत्नत्रयमई स्वानुभवमें रमण करते हुए निजानंदका भोग करते हैं वे ही यथार्थ साधु हैं। ___ इस तरह मूल और उत्तर गुणोंको कहते हुए दूसरे स्थलमें दो सूत्र पूर्ण हुए ॥ ९ ॥
उत्थानिका-अव यह दिखलाते हैं कि इस तप ग्रहण करनेवाले साधुके लिये जैसे दीक्षादायक आचार्य या साधु होते हैं वैसे अन्य निर्यापक नामके गुरु भी होते हैं।
लिंगरगहणं तेसिं गुरुति पव्वज्जदायगो होदि । • छेदेसूवहगा सेसा णिज्जावया समणा ॥१०॥ लिंगग्रहणं तेषां गुरुरिति प्रव्रज्यादायको भवति । ' छेदयोरुपस्थापका शेषा निर्यापका श्रमणाः ॥ १०॥ • अन्वयसहित सामान्यार्थ:-(. लिंगम्गहण ), मुनिभेषके ग्रहणः