________________
७६]
श्रीप्रवचनसारटोका।
२७-स्थिति भोजन । अंजलिपुडेण ठिच्चा कुडादिविवजणेण समपायं । पडिसद्ध भूमितिए असणं लिदिभोयणं णाम ॥ ३४ ॥
भावार्थ-अपने हाथोंको ही पात्र बनाकर, खड़े होकर. भीन आदिका सहारा न लेकर, चार अंगुलके अंतरसे दोनों पगोंको रखकर जीववधादिदोष रहित तीनों भूमियोंको देखकर-अर्थात जहां आप भोजन करने खड़ा हो. जहां भोजनांश गिरे व जहां दातार खड़ा हो-जो भोजन करना सो स्थिति भोजन मूलगुण है । भोजन सम्बन्धी जो अंतराय कहे हैं उनमें प्रायः अधिकांग सिद्धभक्ति करनेके पीछे माने जाने हैं। भोजनका काल तीन नहुर्त है । जबसे सिद्धभक्ति करले। इससे सिद्धभक्ति करनेके पीछे अन्य स्थानमें जासते हैं । जव जव भोजन लेंगे तब खड़े हो हाथोंमें ही लेंगे जिससे यदि अंतगय हो तो अधिक नष्ट न हो तथा बंड भोजन करनेमे मंयमके पालनेमें विशेष ध्यान रहता है प्रमाद नहीं आता।
२८-एक भक्त मूलगुण। उदयत्थमणे काले णालीतियवजियम्हि ममाम्हि ! एकम्हि दुअ तिये वा मुहूत्तकालयमत्तं तु ॥ ३५ ॥
भावार्थ-मूर्योदय तथा अस्तके कालमें तीन घडी अर्थात १ घंटा १२ मिनट छोड़कर शेष मध्यके कालमें एक, दो या तीन महूत्तके भीतर भोजनपान करलेना सो एक भक्त मूलगुण है।
इन ऊपर कहे हुए २८ मूलगुणोंका अभ्यास करता हुआ साधु यदि कदाचित् किसी मूलगुणमें कुछ दोष लगा लेता है तो