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तृतीय खण्ड।
[७५ २५ क्षितिशयन मूलगुण । फासुयभूमिपएसे अप्पमसंथारिदम्हि पच्छपणे । दंडंधणुव्व सेज खिदिसयणं एयपासेण ॥ ३२ ॥
भावार्थः-प्राशुक भूमिके प्रदेशमें विना संथारेके व अपने शरीर प्रमाण संथारेमें स्त्री पशु नपुंसक रहित गुप्त स्थानमें धनुषके समान व लकडीके समान एक पखवाडेसे सोना सो क्षितिशयन मूलगुण है । अधोमुख या ऊपरको मुख करके नहीं सोना चाहिये, संथारा तृणमई, काष्ठमई, शिलामई या भूमिमात्र हो तथा उसमें गृहस्थ योग्य विछौना ओढ़ना आदि न हो । इंद्विय सुखके छोड़ने व नपकी भावनाके लिये व शरीरके ममत्व त्यागके लिये ऐसा करना योग्य है।
२६ अदन्तमन मूलगुण । अंगुलिणहावलेहणिकलोहिं पासाणछल्लियादीहिं । दंतमला सोहणयं संजमगुत्ती अदंतमणं ॥ ३३ ॥
भावार्थ-अंगुली, नाखून, अवलेखनी 'जिससे दांतोंका मैल निकालते हैं । अर्थात् दंतौन तृणादि, पाषाण, छाल आदिकोंसे जो दांतोके मलोंको नहीं साफ करना संयम तथा गुप्तिके लिये सो अदंतमण मूलगुण है । साधुओंके दांतोंकी शोभाका बिलकुल भाव नहीं होता है इससे गृहस्थोंके समान किसी वस्तुसे दांतोंको मलमल कर उजालते नहीं । भोजनके पीछे मुंह व दांत अवश्य धोते हैं जिसमें कोई अन्न मुंहमें न रह जावे, इसी क्रियासे ही उनके दांत
आदि ठीक रहते हैं । उनको एक दफेके सिवाय भोजनपान नहीं है इससे उनको दंतौनकी जरूरत ही नहीं पड़ती है ।