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तृतीय खण्ड।
[७३ दीक्षितोंको कतिकर्म करके अर्थात् सिद्ध भक्ति, श्रुतभक्ति, गुरुभक्ति पूर्वक अथवा मात्र सिर झुकाकर ही मन वचन कायकी शुद्धिपूर्वक जो प्रणाम करना मो वंदना आवश्यक मूलगुण है ।
१६ प्रतिक्रमण आवश्यक मूलगुण । दब्वे नेत्ते काले भावे य किदांवराहसोहणयं ।
णिदणगहरणजुत्तो मणवचकायेण पडिकमणं ।। - भावार्थ--आहार शरीरादि द्रव्यके सम्बन्धमें, वस्तिका शयन
आसन गमनादि क्षेत्रके सम्बन्धमें, पूर्वान्ह अपरान्ह रात्रि पक्ष मास आदि कालके सम्बन्धमें व मन सम्बन्धी भावोंके सम्बन्धमें जो कोई अपराध होगया हो उसको अपनी स्वयं निंदा करके व आचार्यादिके पास आलोचना करके, अपने मन वचन कायसे पछतावा करके दोपका दूर करना सो प्रतिक्रमण मूलगुण है।
२० प्रत्याख्यान आवश्यक मूलगण। णामादोणं छपणं अजोग्गपरिवज्जणं तिकरणेण । ' पच्चपखाणं णेयं अणागयं चागमे काले ॥ २८ ॥
भावार्थ-मन वचन काय शुद्ध करके अयोग्य नाम, स्थापना, · द्रव्य, क्षेत्र, काल, भात्रोंको नहीं सेवन करूँ, न कराऊँगा, न अनु
मोदना करूंगा । इस तरह आगामी कालमें होनेवाले दोपोंका वर्तमानमें व आगामीके लिये त्यागना सो प्रत्याख्यान मूलगुण है।
२१ कायोत्सर्ग आवयक मूलगुण ।। देवस्सियणियमादिसु जडत्तमाणेण उत्तकालम्हि । जिणगुणचिंतणजुत्तो काओसग्गो तणुविसग्गो ॥ २८ ॥.
भावार्थ-देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक व 'सांवत्सरिक आदि नियमोंमें शास्त्रमें कहे हुए काल प्रमाण २५ श्वास, २७