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तृतीय खण्ड।
[७१ १२ श्रोत्रेन्द्रियनिरोध मूलगुण । सजादि जोवसद्दे वोणादिमजीवसंभवे सद्दे । रागादीण णिमित्ते तदकरणं सोदोधो दु॥ १८ ॥
भावार्थ- खड़ग, ऋषभ, गांधार. मध्यम. धैवत, पञ्चम निपाद ये सात म्बर हैं । इनसे जीव द्वारा प्रगट शब्दोंको व वीणा आदि अनीव बानोंके शब्दको जो रागादिक भावोंके निमित्त हैं स्वयं न करना. न उनका सुनना सो श्रोत्रंद्रिय निरोध मूलगुण है । इससे यह स्पष्ट होजाता है कि मुनि महाराज रागके कारणभूत गाने बजानेको न करते न सुनते हैं।
१३ प्राणेन्द्रिय निरोध मूलगुण । पयडीवासणगंधे जीवाजीवप्पगे सुहे असुहे।
रागदेसाकरणं धाणणिरोहो मुणिवरस्स ॥ १६ ॥ .. भावार्थ--जीव या अनीव सम्बन्धी पदार्थों के स्वाभाविक व
अन्य द्वार वासनाकत शुभ अशुभ गंधमें रागद्वेष न करना सो घाण निरोध मूलगुण मुनिवरोंका है । मुनि महाराज कस्तूरी, चंदन . पुप्पमें राग व मूत्र पुरीपादिमें द्वेष नहीं करते, समभाव रखते हैं।
१४ रसनेन्द्रियनिरोध मूलगुण । असणादिचदुवियप्पे पंचरसे फासुगम्हि णिरवज्जे । ' इटाणिहाहारे दत्ते जिभाजओऽगिद्धी ॥ २० ॥
चार प्रकार भोजनमें अर्थात भात, दूध, लाडू, इलायची आदिमें व तीखा, कडुवा, कपायला, खट्टा, मीठा पांच रसों कर सहित प्राशुक निर्दोष भोजन पानमें इष्ट अनिष्ट आहारके होनेपर अति लोलुपता या द्वेष न करना, समभाव रखना सो निहाको जीतना मूलगुण है।