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५.] श्रीप्रवचनसारंटीका
५-परिग्रहत्यागवत मूलगुण । जीवणिवद्धा वद्धा परिग्गहा जीवसंभवा चेष । तेसि सक्कचाओ इयरम्हि व णिम्मोसंगो ॥ ॥
भावार्थ-जीवोंके आश्रित परिग्रह जैसे मिय्यात्व वेद रागादि, जीवसे अबद्ध परिग्रह जैसे क्षेत्र, वस्तु, धन धान्यादि तथा जीवोंसे उत्पन्न परिग्रह जैसे मोती, शंख, चर्म, कम्बलादि इन सबका मन वचन कायसे सर्वथा त्याग तथा पीछी कमंडल शास्त्रादि संयमके उपकारक पदार्थोमें मूर्छाका त्याग सो परिग्रहत्याग महावत है।
साधु अन्तरङ्गमें औपाधिक भावोंको बुद्धिपूर्वक त्याग देते हैं तैसे ही वस्त्र मकान स्त्री पुत्रादिको सर्वथा छोड़ते हैं । अपने आत्मीक गुणोंमें आत्मापना रखकर सबसे ममत्त्व त्याग देते हैं।
६-इर्यासमिति 'मूलगुण । फासुयमग्गेण दिवा जुर्गतरप्पहिणा सकज्जेण । जंतूण परिहरति इरियासमिदी हवे गमणं ॥ ११ ॥
भावार्थ--शास्त्रश्रवण, तीर्थयात्रा, भोजनादि कार्यवश जन्तु रहित प्रासुग मार्गमें 'जहां जमीन हाथी घोड़ें बैल मनुप्यादिकोंसे रौंदी जाती हो' दिनके भीतर चार हाथ भूमि आगे देखकर तथा जन्तुओंकी रक्षा करते हुए गमन करना सो ईसमिति है।
७-भाषासमिति मूलगुण । पेसुपणहासककसपरणिंदाप्पप्पसंसविकहादी । वज्जित्ता सपरहिदं भासासमिदो हवे कहणं ॥१२॥
भावार्थ-पैशून्य अर्थात् निर्दोषमें दोष लगाना, हास्य, कर्कश, परनिन्दा, आत्मप्रशंसाकारी तथा धर्म कथा-वित्त स्त्री कथा; भोजनकथा, चौरकथा व राजकथा आदि बचनोंको छोड़कर विपर हितकारी वचन कहना सो भाषासमिति है।