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तृतीय खण्ड ।
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जीवादि पदार्थोंके व्याख्यानमें अयथार्थ बचन त्यागकर यथार्थ
कहना सो सत्य महाव्रत है ।
मुनि मौनी रहते, व प्रयोजन पड़नेपर शास्त्रानुकूल बचन
बोलते हैं ।
३ - अस्तेय मूलगुण |
गामादिसु पडिदाई अप्पप्पहृदि परेण संगहि | णादाणं परदव्वं अदत्तपरिवजणं तं तु ॥ ७ ॥
भावार्थ- ग्राम, वन आदिमें पडी हुई, रक्खी हुई, भूली हुई अल्प या अधिक वस्तुको व दूसरेसे संग्रह किये हुए पदार्थको न उठा लेना सो अदत्तसे परिवर्जन नामका तीसरा महाव्रत है ।
मुनिगण अपने व परके लिये स्वयं वनमें उपजे फल फूलको व नदी के जलको भी नहीं ग्रहण करते हैं। जो श्रावक भक्तिपूर्वक देते हैं उसी भोजन पानको ग्रहण करके संतोषी रहते हैं ।
४ - ब्रह्मचर्यव्रत मूलगुण । मादुसुदाभगिणीवियदणित्थित्तियं च पडिरुवं । इत्यिकहादिणियत्ती तिलोयपुजं हवे वंभं ॥ ८ ॥
भावार्थ- वृद्ध, बाल व युवा तीन प्रकार स्त्रियोंको क्रमसे माता सुता च वहनके समान देखकरके तथा देवी, मनुष्यणी व तिर्यंचनीके चित्रको देखकरके स्त्रीकथा आदि काम विकारोंसे छूटना सो तीन लोक पूज्य ब्रह्मचर्यव्रत है ।
मुनि महाराज मन वचन कायसे देवी, मनुष्यणी, तियंचनी व अचेतन स्त्रियों के. रागभावके सर्वथा त्यागी होते हैं ।
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