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श्रीप्रवचनसारटोका। महाव्रत मूल व्यवहार चारित्र है। शेष गुण उन हीकी रक्षाके लिये किये जाते हैं। इन पांच महाव्रतोंका स्वरूप मूलाचारमें इस भांति दिया है:
१-अहिंसा.मूलगुण ।। कायेंदियगुणमग्गणकुलाउजीणीसु सन्यजीवाणं । णाऊण य ठोणादिसु हिंसादिविवज्जणमहिंसा ॥५॥
भावार्थ-सर्व स्थावर व त्रस जीवोंकी काय, इंद्रिय, गुणस्थान, मार्गणा, कुल, आयु, योनि इन भेदोंको जान करके कायोत्सर्ग, बैठना, शयन, गमन, भोजन आदि क्रियाओंमें वर्तन करते हुए प्रयत्नवान होकर हिंसादिसे दूर रहना सो अहिंसावत है । अपने मनमें किसी भी जन्तुका अहित न विचारना, बचनसे किसीको पीड़ा न देना व कायसे किसीका वध न करना सो अहिंसावत है। ___मुनिको सकल्पी व आरम्भी सर्व हिंसाका त्याग होता है। अपने ऊपर शत्रुता करनेवालेपर भी जिनके क्रोधरूप हिंसामई भाव नहीं होता है । जो सर्व जीवोंपर दयाभाव रखते हुए सर्व प्रकार आरंभ नहीं करते हैं-हरएक कार्य देखभालकर करते हैं। अंतरंगमें रागादि हिंसाको व बहिरंगमें प्राणियोंके इंद्रिय, बल, आयु, श्वासोछ्वास ऐसे द्रव्य प्राणोंकी हिंसाका जो सर्वथा त्याग करना सो अहिंसावत नामका पहला मूलगुण है।
२-सत्यव्रत मूलगुण । रागादीहि असचं चत्ता परतावसञ्चवयणोतिं । सुत्तत्थाणवि कहणे अयधावयणुज्माणं सञ्चं ॥ ६ ॥
भावार्थ-रागद्वेष, मोह, ईर्पा, दुष्टता आदिसे असत्यको त्यागना, परको पीडाकारी सत्य बचनको त्यागना तथा सूत्र और