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तृतीय.खण्ड।
[४५ कि संयमोपधि पिच्छिका है तथा शौचोपधि कमण्डल है जैसे “संयमोपधिः प्राणिदयानिमित्त पिच्छिकादिः शौचोपधिः मूत्रपुरीषादिप्रक्षालन निमित्तं कुंडिकादि द्रव्यम् । अर्थात् प्राणियोंकी रक्षाके वास्ते पिच्छिका तथा मूत्रमलादि धोनेके वास्ते कमण्डल रखते हैं। मयूरके पंखोंकी पीछी क्यों रखनी चाहिये इसपर मूलाचारमें कहा है
रजसेदाणमगहणं मद्दवसुकुमालदा लहत्तं च । जत्थेदे पंचगुणा तं पडिलिहणं पसंसति ॥ १० ॥
भावार्थ-जिसमें ये पांच गुण हैं वही पिछिका प्रशंसायोग्य है(१) (२) जिसमें धूला व पसीना न लगे । अर्थात् जो धूल और पसीनेसे मैली न हो (३) जो बहुत कोमल हो कि आंखमें भी फेरी हुई व्यथा न करे "मृदुत्त्वं चक्षुषि प्रक्षिप्तमपि न व्यथयति" (४) जो सुकुमार अर्थात् दर्शनीय हो (५) जो हलकी हो । ये पांचों गुण मोर पिच्छिकामें पाए जाते हैं “यत्रैते पञ्चगुणा द्रव्ये संति तत्प्रतिलेखनं मयूरपिच्छग्रहणं प्रशंसति" जिसमें ये पांच गुण हैं उसीकी पिच्छिका ठीक है । इसीलिये आचार्योंने मोर पीछीको सराहा है।
ऊपरकी गाथाओंका सार यह है कि साधुका बाहरी चिन्ह नग्नभेष, पीछी कमंडल सहित होता है । आवश्यक्ता पडनेपर ज्ञानका उपकरण शास्त्र रखते हैं। अंतरङ्ग चिन्ह अभेद रत्नत्रयमई आत्मामें लीनता होती है और मुनि योग्य आचरणके पालनमें उत्साह होता है। . इस तरह दीक्षाके सन्मुख पुरुषकी दीक्षा लेनेके विधानके कथनकी मुख्यतासे पहले स्थलसे सात गाथाएं पूर्ण हुई ॥७॥