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श्रीप्रवचनसारटीका |
है । वास्तवमें साधु महाराज आत्मानुभवमें ऐसे लीन होते हैं कि उनको अपने आत्मभोगके सिवाय अन्य कार्यकी अन्तरङ्गसे रुचि नहीं होती है ।
साधुका द्रव्यलिंग वस्त्र रहित नग्न दिगम्बर होता है। जहां तक वस्त्रका सम्बन्ध है वहां तक श्रावकका व्रत पालना योग्य है । श्वेतांबर जैन ग्रन्थोंमें नग्न भेषको ही श्रेष्ठ कहा है। प्रवचनसारोद्धार के प्रकरण रत्नाकर भाग तीसरा (मुद्रित भीमसिंह माणिकजी सं० १९३४) पृष्ठ १३४ में है “पाउरण वज्जियाणं विसुद्ध जि - कप्पियाणं तु" अर्थात् जे प्रावरण एटले कपड़ा वर्जित छे ते स्वल्पोप िपणे करी विशुद्ध जिनकल्पिक कहेवाय छे. भाव यह है कि जो वस्त्र रहित होते हैं वे विशुद्ध जिनकल्पी कहलाते हैं ।
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आचारांग सूत्र (छपा १९०६ राजकोट प्रेस प्रोफेसर रावजीभाई देवराज द्वारा) में अध्याय आठवेंमें नग्न साधुकी महिमा है - जे भिक्खु अचेले परिवसिते तस्म णं एवं भवति चाए अहं तण फाएं अहिया सितए, सीयफासं अहिया सिचए ते उफासं अहिया शिकए, दंसमस फासं जहिया सित्तए, एमतरे अन्नतरे विरुवरूवे कासे अहिया सिए (४ (गाथा ष्ट. १२६). भावार्थ - जो साधु वस्त्र रहित दिगम्बर हो उसको यह होगा कि मैं घासका स्पर्श सह सक्ता हूं, शीत ताप सह सक्ता हूं, देशमशकका उपद्रव सह सक्ता हूं और दूसरी भी अनुकूल प्रतिकूल परीषह सह सक्ता हूं | इसी सूत्रमें यह भी कथन है कि महावीर स्वामीने नग्न दीक्षा ली थी तथा बहुत वर्ष नग्न तप किया (अ० ९८० १३५ - १४१) श्री मूलाचारजीमें गाथा १४ में कहा है