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तृतीय खण्ड। तब गुरु उसको व्रतोंका खरूप तथा प्रतिक्रमण क्रियाका स्वरूप निश्चय तथा व्यवहार नयसे समझाते हैं । उसो सुनकर वह वडे आदरसे धारणामें लेता है व सर्व शरीरादिसे ममत्व त्याग ध्यानमें लवलीन हो जाता है। इस तरह सामायिक चारित्रका धारी यह साधु होकर 'मोक्षमार्गकी साधना साम्यभावरूपी गुफामें तिष्ठनेसे होती है। ऐसा श्रद्धान रखता हुआ निरन्तर साम्यभावका आश्रय लेता हुआ कर्मोकी निर्जरा करता है । साधुपदमें सर्व परिग्रहका त्याग है किन्तु जीवदयाके लिये मोर पिच्छिका और शौचके लिये जल सहित कमण्डल इसलिये रखे जाते हैं कि महाव्रतोंके पालनेमें बाधा न आवे । इनसे शरीरका कोई ममत्व नहीं सिद्ध होता है । साधु महाराज अपने भावोंको अत्यन्त सरल, शांत व अध्यात्म रसपूर्ण रखते हैं। मौन सहित रहनेमें ही अपना सञ्चा हित समझते हैं। प्रयोजनवश बहुत अल्प बोलते हैं फिर भी उसमें तन्मय नहीं होते हैं। श्री पूज्यपाद स्वामीने इष्टोपदेशमें कहा है
इच्छत्येकांतवास निर्जन जनितादरः । निजकार्यवशात्किंचिदुक्त्वा विस्मरति द्रुतं ॥४०॥ ब्रुवन्नपि हि न ब्रूते गच्छन्नपि न गच्छति । स्थिरीकृतात्मतत्त्वस्तु पश्यन्नपि न पश्यति ॥ ४१ ॥
भावार्थ-साधु महाराज निर्जन स्थानके प्रेमालु होकर एकांतमें वास करना चाहते हैं तथा कोई निजी कार्यके वशसे कुछ कंहकर शीघ्र भूल जाते हैं इसलिये वे कहते हुए भी नहीं कहते हैं, नाते हुए भी नहीं जाते हैं, देखते हुए भी नहीं देखते हैं कारण यह है कि उन्होंने अपने आत्मतत्वमें स्थिरता प्राप्त करली