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३४] श्रीप्रवचनसारटोका ।
पंडित आशाधरजीने अनगारधर्मामृतमें नाग्न्य “परीपहको कहते हुए साधुके नग्नपना ही होता है ऐसा बताया है:निर्ग्रन्थनिभूषण विश्वपूज्यनारन्यव्रतो दोषयितु प्रवृत्ते। चित्तं निमित्ते प्रवलेपि योनस्पृश्येत दोषैर्जितनान्यरुवसः ॥६४.६
वहीं साधु नग्नपनेकी परिपहको जीतनेवाला है जो चित्तको बिगाड़नेके प्रबल निमित्त होनेपर भी रागद्वेपादि दोपोंसे लिप्त नहीं होता है । उसीका नग्नपनेका व्रत जगतपूज्य है, उसमें न कोई वस्त्रादि परिनहका ग्रहण है और न आभूपणादिका ग्रहण है।
इस तरह इस गाथामें यह दृढ़ किया गया है कि साधुके निर्ममत्व जितेन्द्रियपना और नग्नपना होना ही चाहिये ॥ ४ ॥
उत्थानिका-आगे यह उपदेश करते हैं कि पूर्व सूत्रमें कहे प्रमाण यथानातरूपधारी निर्मन्थके अनादिकालमें भी दुर्लभ ऐसी निज आत्माकी प्राप्ति होती है। इसी स्वात्मोपलब्धि लक्षणको चतानेवाले चिन्ह उनके बाहरी और भीतरी दोनों लिंग होते हैं:
जधजादरूवजाद उप्पाडिदकेसमंसुगं सुद्धं । 'हिंद हिंसादीचे अप्पडिकम्म हादि लिंग ॥ ५॥ सुच्छारंभविजुत्तं जुत्त उवजोगजोगीहि । लिग ण परावेदख अपुणभक्कारण जोहं ॥ ६ ॥ यथाजातरूपजातमुत्पारितकेशश्मनुकं शुद्धम् ।। रहि हिंसादितो प्रतिकर्म भवति लिङ्गम् ॥ ५ ॥ मूरिस्मवियुक्तं युक्तमुपयोगयोगशुद्धिभ्याम् । लिङ्गन पररापेक्षमपुनर्भवकारणं जैनम् ॥ ६॥ (युग्मम् )
*अन्वय सहित सामान्या:-(लिंग) मुनिका द्रव्य या बाहरी चिन्ह (जधनादरूवनाद) जैसा परिग्रह रहित नग्नस्वरूप