________________
तृतीय खण्ड ।
[ ३५
1. होता है वैसा होता है ( उप्पाडिदकेसमंसुगं ) जिसमें सिर और डाढ़ी के बालों का लोच किया जाता है ( सुद्धं ) जो निर्मल और ( हिंसादीदो रहिद ) हिंसादि पापोंसे रहित तथा ( अप्पडिकम्मं ) श्रृंगार रहित (हवदि) होता है । तथा (लिंग) मुनिका भाव चिन्ह ( मुच्छारम्भविजुत ) ममता आरम्भ करनेके भावके रहित तथा ( उवजोग जोगसुद्धीहिं जुतं ) उपयोग और ध्यानकी शुद्धि सहित (परावेक्वण) परद्रव्यकी अपेक्षा न करनेवाला ( अपुणन्भवकारणं) मोक्षका कारण और (जो ) जिन सम्बन्धी होता है ।
दिशेषार्थ :- जैन साधुका द्रव्यलिंग या शरीरका चिन्ह पांच विशेषण सहित जानना चाहिये - (१) पूर्व गाथामें कहे प्रमाण निर्ग्रन्थ परिग्रह रहित नग्न होता है (२) मस्तकके और डाढ़ी मूछोंके श्रृंगार सम्बन्धी रागादि दोषोंके हटानेके लिये सिर व डाढ़ी मूलों केशों को उपाड़े हुए होता है (३) पाप रहित चैतन्य चमत्कार के विरोधी सर्व पाप सहित योगों से रहित शुद्ध होता है ( ४ ) शुद्ध चैतन्यमई निश्रय प्राणी हिंसा के कारणभूत रागादि परिणतिरूप निश्चय हिंसाके अभाव से हिंसादि रहित होता है (५) परम उपेक्षा संयम के बल से देहके संस्कार रहित होनेसे शृंगार रहित होता है । इसी तरह जैन साधुका भाव लिंग भी पांच - विशेषण सहित होता है । (९) परद्रव्यकी इच्छा रहित व मोह रहित परमात्माकी ज्ञान ज्योतिसे विरुद्ध बाहरी द्रव्यो में ममताबुद्धिको मूर्छा कहते हैं तथा मन वचन कायके व्यापार रहित चैतन्यके चमत्कार से प्रतिपक्षी व्यापारको आरम्भ कहते । इन दोनों मूर्छा और आरम्भसे रहित होता है (२) विकार रहित स्वसंवेदन लक्षण धारी