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तृतीय खण्ड।
[३३. भावार्थ-प्राणियोंकी हिंसा न करना जगत एक परमब्रह्म भाव है, जिस आश्रममें थोड़ा भी आरम्भ है वहां यह अहिंसा ' नहीं है इसीसे उस अहिंसाकी सिद्धि के लिये आप परम करुणाधारीने अतरङ्ग बहिरंग दोनों ही प्रकारकी. परिग्रहका त्याग कर दिया और किसी प्रकारके जटा मुकुट भस्मधारी आदि वेषोंमें व वस्त्राभरणादि परिग्रहमें रञ्चमात्र रति नहीं रक्खी अर्थात् आप यथाजातरूपधारी होगए । श्री विद्यानंदीस्वामी पात्रकेशरी स्तोत्रमें कहते हैं
जिनेश्वर न ते मतं पटकवलपात्रग्रहो। विमृश्य सुखकारणं खयमशतकः कल्पितः ॥ अथायमपि सत्पथस्तव भवेद् वृथा नग्नता । न हस्तसुलभे फले सति तरुः समारुह्यते ॥४॥
भावार्थ- हे जिनेंद्र ! आपके मतमें साधुओंके लिये उन कपासादिके वस्त्र रखना व भिक्षा लेनेका पात्र रखना नहीं कहा गया है। इनको सुखका कारण जानके स्वयं असमर्थ साधुओंने इनका विधान किया है। यदि परित्रह सहित मुनिपना भी मोक्षमार्ग हो जावे तो आपका नग्न होना वृथा होजावे, क्योंकि यदि वृक्षका फल हाथसे ही मिलना सहन हो तो कौन बुद्धिमान वृक्षपर चढ़ेगा।
श्री कुलभद्र आचार्य सारसमुच्चयमें कहते हैं:पखंडाधिपतिचको परित्यज्य वसुन्धराम् । तृणवत् सर्वभोगांश्च दोक्षा बैगम्बरी स्थिता ॥ १३६ ॥
भावार्थ-छः खंडका स्वामी चक्रवर्ती भी सर्व पृथ्वीको और सर्व भोगोंको निनोके समान त्यागकर दिगम्बरी दीक्षाको धारण करते हैं।