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३२] श्रीप्रवचनसारटोका । साधु पदके योग्य वह व्यक्ति नहीं होता है । साधुपदमें नग्नपना मुख्य आलम्बन है। जैसी दशामें जन्म हुआ था वैसी दशामें अपनेको रखना ही यथाजातरूपपना है । जो कुछ वस्त्राभरणादि ग्रहण किये थे उन सबका त्याग करना ही निर्ग्रन्थ पदको धारण करना है । श्री मूलाचारजीमें इस नग्नपनेको अट्ठाइस मूलगुणोंमें गिनाया जिसका स्वरूप ऐसा बताया है-- .
वत्याजिणवक्केण य अहवा पत्तादिणा असंवरण। णिभूसण णिग्गंथं अच्चेलक जगदि पूज्जं ॥ ३०॥ .
(मूलगुण अ०) भावार्थ-जहां कम्बलादि वस्त्र, मृगछाला आदि चर्म, वृक्षोकी छाल वक्कल, व वृक्षोंके पत्ते आदिका कोई प्रकारका ढकना शरीरपर न हो, आभूषण न हों, तथा बाहरी स्त्री पुत्र धन धान्यादि व अन्तरङ्ग मिथ्यात्व आदि २४ परिमहसे रहित हों वहीं जगतमें पूज्य अचेलकपना या वस्त्रादि रहितपना, परमहंश स्वरूप नग्नपना होता है । वस्त्रोंके रखनेसे उनके निमित्तसे इनको धोने धुलानेमें हिंसा होगी। उनके भीतर न धोनेसे जन्तु पड़ जायगे तब वैठते उठते हिंसा करनी पड़ेगी अतएव अहिंसा महाव्रतका पालन वस्त्र रखनेमें नहीं होसका है।
खामी समन्तभद्रने श्री नमिनाथकी स्तुति करते हुए कहा है:अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्मपरमम् । न सा तत्रारंभोऽस्त्यणुरपि च यत्राश्रमविधौ ॥ ततस्तत्सिद्धयर्थ परमकरुणो ग्रन्थमुभयम् । भवानेवात्याक्षीन च विकृतवेषोपधिरतः ॥ ११ ॥