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.३०] श्रीप्रवचनसारटीका। वमें यही मुनिका यथाजातरूपपना है । यथाजातरूप विशेषणका दूसरा अर्थ वस्त्रादि परिग्रह रहित निर्ग्रन्थपना या नग्नपना है ।
साधुका मन जबतक इतना दृढ़ न होगा कि वह वस्त्रके अभावमें शीत, उप्ण, वर्षा, डांस मच्छर आदि व भूमिशयन आदिके कष्टको सहममें सह सके तबतक उसका मनः देहके ममत्वसे रहित नहीं होता हुआ आत्मानन्दमें यथार्थ एकानताका लाभ नहीं करता है । इसलिये यह द्रव्यलिंग साधुके अंतरंग भावलिंगके लिये निमित्त कारण है। निमित्तके अभावमें उपादान अपनी अवस्थाको नहीं बदल सक्ता है। जैसा निमित्त होता है वैसा ही. उपादानमें परिणमन होता है... ___ जैसे सुन्दर भोजनका दर्शन भोजनकी लालसा होनेमें, सुन्दर स्त्रीका दर्शन कामभोगक्री इच्छा होनेमें, १६ वाणीका अग्निका ताव सुवर्णको शुद्ध - बनानेमें निमित्त हैं। वैसे शुद्ध निर्विकल्प भावलिंगरूप आत्माके। भावोंके परिणमनमें. साधुका -परिग्रह । रहित-नग्न होनानिमित्त है । जैसा बालक जन्मके समयमें होता है वैसा ही होजाना साधुका यथा जात रूप. है । यहां गृहस्थकी संगतिमें पड़ कर जो कुछ वस्त्राभूषण स्त्री आदिका ग्रहण किया था उस सर्वका त्यागकर जैसा जन्मा था वैसा होनाना साधुका सच्चा विरक्त या त्याग-भाव है।
शरीर आत्माके वासका सहकारी है, तपस्याका साधक है । इसलिये शरीर मात्रकी रक्षा करते हुए और शरीरपर जो कुछ परवस्तु धार रक्खी थी उसको त्याग करते हुए जो सहनशील और वीर होते हैं वे ही निर्ग्रन्थ दिगम्बर-मुद्राके धारक हैं। सनकी दृढ़तासे