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ततीय खण्ड।
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२६ श्री देवसेन आचार्य श्री तत्त्वसारमें कहते हैं:---- भाणविओ हु जोई जब णो सम्वेय णिययअप्पाणं । तो ण लहइ तं सुद्धं भग्गविहीणो जहा रयणं ॥४॥
भावार्थ-जो योगी ध्यानमें स्थित होकर भी यदि निज आत्माका अनुभव नहीं करता है तो वह शुद्ध आत्मस्वभावको नहीं पाता है । जैसे भाग्यरहितको रत्न मिलना कठिन है ।
श्री नागसेन मुनिने तत्त्वानुशासनमें भावमुनिके स्वरूपको इसतरह दिखलाया है:समाधिस्थेन यद्यात्मा बोधात्मा नानुभूयते । तदा न तस्म तद्ध्यानं मूर्छावान् मोह एव सः ॥ १६६ ॥ आत्मानमन्यसपृक्तं पश्यन् द्वैतं प्रपश्यति । पश्यन् विभक्तमन्येभ्यः पश्यत्यात्मानमद्वयं ॥ १७७ ।।। पश्यन्नात्मानमैकामयात्क्षपयत्यार्जितान्मलान् । निरस्ताहं ममीभावः संवृणोत्पप्यनागतान् ॥ १७८ ॥ :
भावार्थ-समाधिमें स्थित योगी द्वारा यदि ज्ञानस्वरूप आत्माका अनुभव नहीं किया जाता है तो उसके आत्म ध्यान नहीं है । वह केवल मूर्छावान है अर्थात् मोह स्वरूप ही है । आत्माको अन्यसे संयुक्त देखता हुआ योगी द्वैतभावका विचार करता है, परन्तु उसीको अन्योंसे भिन्न अनुभव करता हुआ एक अद्वैत शुद्ध आत्माहीको देखता है।
आत्माको एकाग्रभावसे अनुभव करता हुआ योगी पूर्व बद्ध कर्ममलोंका क्षय करता है तथा अहंकार ममकार भावको दूर रखता हुआ आगामी कर्मके आश्रवका संवर भी करता है। वास्त