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श्रीप्रवचनसारटोका। जो रूपगंधसद्दे य भोगे वजेदि णिचसा । तस्स सामायियं ठादि इदि केवलिसासणे ॥३०॥
( पडावश्यक ) भावार्थ-जो साधु रमना व स्पर्श सम्बन्धी कामसेवनकी इच्छाको सदा दूर रखता है उसीके साभ्यभाव होता है ऐसा केवली भगवानके शासनमें कहा है । जो नाना प्रकार रूप, गंध, व शब्दोंकी इच्छाओंका निरोध करता है उसीके सामायिक होती है ऐसा केवली महाराजके शासनमें कहा है।
इंद्रियोंके भोगोंसे विजय प्राप्त करनेके लिये साधु इस तरह भावना करता है, जैसा श्री कुलभद्रआचार्यने सारसमुच्चयमें कहा है
कृमिजालशताकोणे दुर्गंधमलपूरिते । विण्मूत्रसंवते स्रोणां का काये रमणीयता ॥ १२४ ॥ अहो ते सुखितां प्राप्ता ये कामानलवर्जिताः । सद्वृत्तं विधिना पाल्य यास्यन्ति पदमुत्तमं ॥ १२५॥ पखंडाधिपतिश्चक्रो परित्यज्य वसुन्धराम् । तृणवत् सर्वभोगांश्च दोक्षा दैगम्बरी स्थितां ॥ १३६ ॥ आत्माधीनं तु यत्सौख्यं तत्सौख्यं वर्णितं बुधैः। पराधीनं तु यत्सौख्यं दुःखमेव न तत्सुखं ॥ ३०१ ॥
थावार्थ-जो स्त्रियोका शरीर सैकड़ों कीड़ोंसे भरा है, दुर्गध मलसे पूर्ण है तथा भिष्टा और मूत्रका स्थान है उसमें रमनेयोग्य क्या रमनीकता है ? अहो वे ही सुखी रहते हैं जो कामकी अग्निको शांत किये हुए विधिपूर्वक उत्तम चारित्रको पालकर उत्तम पदमें पहुंच जाते हैं। छः खण्ड पृथ्वीके स्वामी चक्रवर्ती भी इस पृथ्वीको व सर्व भोगोंको तृणके समान जान छोड़कर दिगम्बरी दीक्षाको धारण कर चुके हैं। वास्तवमें जो आत्माके आधीन अतीन्द्रिय