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तृतीय खण्ड।
[२५ शिष्टे दुष्टे सदसि विपिने कांचने लोष्टवर्ग। सौख्ये दुःखे शुनि नरवरे संगमे यो वियोगे ॥ शश्वद्धीरो भवति सदृशो द्वेषरागव्यपोढः । प्रौढा स्त्रीव पृथितमहसस्तप्तसिद्धिः करस्था ॥३५॥
भावार्थ-जो सज्जन व दुर्जनमें, सभा व वनमें, सुवर्ण व कंकड़ पत्थरमें, सुख व दुःखमें, कुत्ते व श्रेष्ठ मनुष्यमें, संयोग व वियोगमें सदा समान बुद्धिधारी, धीरवीर, रागद्वेषसे शून्य वीतरागी रहता है उसी तेजस्वी पुरुषके हाथको मुक्तिरूपी स्त्री नवीन स्त्रीके समान ग्रहण कर लेती है। ___ दूसरा विशेषण नितेन्द्रियपना है । साधुको अपनी पांचों इन्द्रियों और मनके ऊपर ऐसा स्वामीपना रखना चाहिये जिस तरह एक घुड़स्वार अपने घोड़ोंपर स्वामित्त्व रखता है। वह कभी भी इन्द्रिय व मनकी इच्छाओंके आधीन नहीं होता है क्योंकि सम्यग्दर्शनके प्रभावसे उसकी रुचि इंद्रियसुखसे दूर होकर आत्मजन्य अतीन्द्रिय आनन्दकी ओर तन्मय होगई है। इंद्रियसुख अतृप्तकारी तथा संसारमें जीवोंको लुब्ध रखकर क्लेशित करनेवाला है जब कि अतीन्द्रिय सुख आत्माको संतोपित करके मुक्तिके मनोहर सदनमें ले जानेवाला है। ऐसा विश्वासधारी ज्ञानी जीव स्वभावसे ही नितेन्द्रिय होनाता है । वह इंद्रिय विजयी साधु अपनी इंद्रियोंसे व मनसे आत्मानुभवमें सहकारी खाध्याय आदि कार्योंको लेता है वह उनकी इच्छाओं के अनुकूल विषयोंके वनोंमें -दौड़कर आकुलित नहीं होता है। श्री मूलाचारनीमें कहा है
जो रसेन्दिय फासे य कामे वजदि णिच्चसा । तस्स सामायियं ठादि इदि केवलिसासणे ॥ २६ ॥