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तृतीय खण्ड। [२७ आनन्द है उसको बुद्धिमानोंने सुख कहा है-जो इंद्रियाधीन पराधीन सुख है वह दुःख ही है सुख नहीं है ।
_ 'स्वामी समन्तभद्रने स्वयभूस्तोत्रमें इंद्रियसुखको इस तरह हेय बताया हैखास्थ्यं यदात्यन्तिकमेष पुंसां खार्थो न भोगः परिभंगुरांत्मा । तृषोऽनुषगान च तापशान्तिरितोदमाख्यद्भगवान् सुपार्श्वः ॥३०॥
भावार्थ-श्री सुपार्श्वनाथ भगवानने कहा है कि जीवोंका सच्चा स्वार्थ अपने आत्मामें स्थित होना है, क्षणभंगुर भोगोंका भोगना नहीं है क्योंकि इंद्रियोंका भोग करनेसे तृष्णाकी वृद्धि हो जाती है तथा विषयभोगकी ताप कभी शांत नहीं होसक्ती ।
इस तरह सम्यग्ज्ञानके प्रतापसे. वस्तुस्वरूपको विचारते हुए . साधु महात्माको नितेंद्रियपना प्राप्त होता है।
तीसरा विशेषण यथाजातरूपधारी है। इससे यह प्रयोजन है कि साधुका आत्मा पूर्ण शांत होकर अपने आत्माके शुद्ध स्वरूपमें रमण करता हुआ उसके साथ एकरूप-तन्मय हो जाता है । साधु वारवार छठे सातवें गुणस्थानमें आता जाता है। छठेमें यद्यपि कुछ ध्याता, ध्येय व ध्यानका भेद बुद्धिमें झलकता है तथापि सातवें गुणस्थानमें आत्मामें ऐसी एकाग्रता रहती है कि ध्याता ध्यान ध्येयके विकल्प भी मिट जाते हैं। जिस खभावमें स्वानुभवके समय द्वैतताका अभाव हो जाता है-मात्र अद्वैत रूप आप ही अकेला अनुभवमें आता है, वहां ही यथाजातरूपपना भाव लिंग है। इसी भावमें ही.निश्चय मोक्षमार्ग है। यहीं रत्नत्रयकी एकता