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तृतीय खण्ड ।
अणयारपरमधम्मं धीरा काऊण सुद्धसम्मत्ता । गच्छन्ति केई सग्गे केई सिज्मन्ति चुदकम्मा ॥ १८६॥
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भावार्थ - मुनिपदरूपी शुद्धोपयोग ही परम धर्म है । शुद्ध सम्यग्दृष्टी धीर पुरुष इस धर्मका साधन करके कोई तो स्वर्ग में जाते तथा कोई सव कर्मका नाशकर सिद्ध हो जाते हैं ॥९६॥ उत्थानका- आगे शिष्य जनको शास्त्रका फल दिखाते हुए इस शास्त्रको समाप्त करते हैं
बुज्झदि सासणमेयं सागारणगारचरियया जुत्तो । जो सो पवयणसारं लहुणा कालेण पप्पोदि ॥ ९७ ॥ बुध्यते शासनमेतत् सागरानगारचर्यया युक्तः । यः स प्रवचनसारं लघुना कालेन प्राप्नोति ॥ ६७ ॥
अन्वय सहित सामान्यार्थ - (जो ) जो कोई ( सागारणगार चरिया जुत्तो) श्रावक या मुनिके चारित्रसे युक्त होकर (एयं सासणं) इस शासन या शास्त्रको (बुज्झदि) समझता है (सो) सो भव्यजीव (लहुणा काले ) थोड़े ही कालमें (पवयणसार) इस प्रवचनके सारभूत परमात्मपदको (पप्पोदि) पालेता है ।
विशेषार्थ - यह प्रवचनसार नामका शास्त्र रत्नत्रयका प्रकाशक है। तत्वार्थका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है, उसके विषयभूत अनेक धर्मरूप परमात्मा आदि द्रव्य हैं - इन्हींका श्रद्धान व्यवहार सम्यक्त है इससे साधने योग्य अपने शुद्धात्माकी रुचिरूप निश्चय सम्यग्दर्शन है, जाननेयोग्य परमात्मा आदि पदार्थोंका यथार्थ जानना व्यवहार · सम्यग्ज्ञान है, इससे साधने योग्य विकार रहित स्वसंवेदन निश्वव सम्यग्ज्ञान है । व्रत, समि