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:४६] श्रीप्रवचनसारटोका। आदिका आचरण पालना व्यवहार का सराग चारित्र है, उसीसे ही साधने योग्य अपने शुद्धात्माकी निश्चल अनुभूतिरूप पीतराग चारित्र या निश्चय सम्बत्यारित है। जो कोई लिप्यजन अपने भीतर "रत्नत्रय ही उपादेय हैं, इनहींना साधन कार्यकारी सी रुचि रखकर बाहरी रत्नत्रयका तापन श्रावकके आचरण द्वारा या बाहरी रत्नत्रयके आधारले निश्चय रत्नया साधन सुचिरनेके आचरण अर्थात् प्रमत्त गुण स्थानवी भादि तपोधनही बची बारा करता हुआ इस प्रवचनसार नानले अन्यको समझता है पर पोड़े ही कालनें अपने परमात्मपदो प्राकर लेता है।
मामाप इस प्रवचनसारमें जो रत्ननपनई मोक्षना। बताया है उसपर अपनी बाबा रखकर श्रावस या सुनिपदने आचारफे द्वारा जो अपने ही गुम्बात्माका अनुनन करता है, वह यदि वनवृषभनाराच महनना धारी है तो मुजिपके द्वारा क्षायिक सम्यग्दृष्टी हो क्षपकोणीपर चढ़कर शीघ्र ही चार वालिया काँका नाशकर केवलज्ञानी अरहंत होकर रि आठ कर्म रहित सिद्धपदको प्राप्त कर लेता है और यदि कोई मुनि उम मवसे मोक्ष न पावे तो कुछ भवों सुति मानकर लेता है । श्रावक धसको आजन्म साधनेवाला देयपदने जाकर तोतरे भव या और दो चार व कई भवोंमें मुजिपदके द्वारा मुक्ति पालेता है । इस ग्रन्थ, चारित्रकी मुख्यताले कथन है। वह चारित्र सम्बग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान सहित ही सभ्यग्चारित्र होता है । व्यवहारमें व्रतोंका पालना व्यवहार निमित्त है, इस निमित्से अत्यन्त निराकुल स्वरूपमें मग्नतारूप शुद्धोपयोग मई निश्चय चारित्रका लाभाहोता है। यही वह ध्यानकी.
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