________________
३४४]
श्रोप्रवचनसारटोका । तपमें एकाग्रता करता हुआ, उसी ध्यानमई तपमें उन्नति करता हुआ उसी ध्यानमई तपमें एकताकी भावनाके प्रतापसे परमानंदको प्राप्त होकर जबतक मुक्ति न पावे, देव और मनुष्योंके सुखकी तरंगोंमें विश्राम करता है वही साधु अन्तमें बाहरी शरीर प्राप्तिके कारण इंद्रिय बल आयु तथा श्वासोश्वासमई प्राणोंसे छूटकर उत्कृष्ट मुक्तिपदको प्राप्तकर लेता है।
श्री अमितगति आचार्य सामायिकपाटमें कहते हैंनरकगतिमशुद्धैः सुदरैः स्वर्गवास ।
शिवपदमनवयं याति शुद्धरकर्मा । स्फुटमिह परिणामैश्चेतनः पोप्यमाने .
रिति शिवपदकामैस्ते विधेया विशुद्धाः ॥ ७८ ॥ भावार्थ-अशुमोपयोग परिणामोंसे यह आत्मा नरक गतिमें जाता है, शुभोपयोग परिणामोंसे स्वर्गगति पाता है तथा अत्यन्त पुष्ठ शुद्धोपयोग परिणामोंसे प्रगटपने कर्म रहित होकर निर्दोष परम प्रशंसनीय मोक्षपदको पाता है। ऐसा जानकर जो मोक्षपदके चाहनेवाले हैं उनको शुहोपयोग परिणामोंको ही करना योग्य है।
श्री कुलभद्र आचार्य सारसमुच्चयमें कहते हैं:सम्यक्त्वज्ञानसंपन्नो जैनभको जितेन्द्रियः ।
लोभमोहमदैत्यको मोक्षमागी न संशयः ॥ २५ ॥ . भावार्थ-जो सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान सहित है, जैन धर्मका भक्त है, जितेन्द्रिय है, लोभ, मोह, मायादि कषायोंसे रहित वही अवश्य मोक्षका लाभ करता हैं इसमें संशय नहीं करनाचाहिये।
श्री परमानंद मुनि धम्मरसायणमें कहते हैं