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' तृतीय खण्ड। [३४३ 'श्री गूलाचार अनगार भावनामें कहा है:--- रागो दोसो जोहो शिदोष धीरेहि णिसिदा । पदका "ता देवनासप्पहारहि ॥ १४ दतदिया महारमो राग दोहं च से खवेदृर्ण । झाणारज गजुवा खोति विदम हा ।। ११५ ॥
भास--..ीर साधु निश्वयं रत्नत्रयरूप व प्रतापसे भले प्रकार राम नोहको जलते हैं तथा व्रत र उपचारकी चोटोंसे पांचों की इच्छमीले दमन कर जा. 1 | ऐसे जितेन्द्रिय महा। शुद्धोपोगा शु ,ध्यान ने बुक कर रागद्वेषोंको भयकर हनीयकर्म का नाश करने हुए अन्य कर्गका भी नाश करने -
अभिहसम्ममूलं खविद फनाया स्त्रमानिहि। उदसूला घ दुमो ण जाइदव्यं पुणो मात्य , ११६ ..
भानाम-जब आठों ही प्रकारके कर्मोके मूल शोधा दे कपाय भावोंको उत्तम क्षमादि धर्मभावके प्रतापसे नष्ट कर लिया जाता है, सब जैसे जड़मूलले उखड़ा हुआ वृक्ष फिर नहीं जगता है वैसे शुद्ध आत्मा फिर कभी जन्म ही धारण करता है । उसके संसार वृक्षकी जड़ ही कट गई फिर संसार कैसे हो सका है।
पं० आशाधर अनगार धर्मामृत सप्तम अ०में कहते हैंयस्त्यक्त्वा विषयामिलापमभितो हिंसामपास्यंतपस्यागूणों विशदे तदेकपरतां विभ्रत्तदेवोदतम् । तीत्वा तत्प्रणिधानजातपरमानन्दो विमुश्चत्यसून् । स स्नात्त्वाऽमरमय॑शमलहरोप्वात परां निर्वृतिम् ॥१०४॥
भावार्थ-जो साधु पांचों इंद्रियोंकी इच्छाको त्यागकर, द्रव्य हिंसा तथा भावहिंसाको दूरकर, निर्मल तपमें उद्यमी होकर उसी