________________
:३३६.] श्रीप्रवचनसास्तीका । यह, साधु शीघ्र ही नवीन क्रोका संवर करता हुआ और पूर्व बांधे हुए कर्मोकी निर्नरा करता हुआ इस दुःखमई खारे जलसे मेरे हुए तथा स्वात्मानन्द रूपी फलसे शून्य संसारसमुद्रमें अधिक काल नहीं ठहरता है-शीयःही परम-शुद्ध रत्नत्रय रूपी नौकाके प्रतापसे मोक्षद्वीपमें पहुंच जाता है। संसारतत्त्व जब पराधीन है तब मोक्ष तत्त्व स्वाधीन है, संसारतत्त्व, विनाश रूप अनित्य है, तब मोक्ष तत्त्व अविनाशी है, संसारतत्त्व जव आकुलतारूप दुःखमई है तब मोक्षतत्व निराकुल सुखमई है, संसारतत्व जब कर्मबंधका वीन है, तब मोक्षतत्व कर्मबंध नाशक है ऐसा जानकर भव्य जीवोंको संसार तत्वसे वैराग्य धारकर मौक्षतत्वकी ही भावना करनी योग्य है। .
इसी मोक्षतत्वके आदर्शको अमृतचन्द्राचार्यने श्री समयसार कलशमें कहा है:जयति सहजतेजः पुंजमजत्रिलोकी
रूखलदखिलविकल्पोऽप्येकरूपस्वरूपः । खरसविसंरपूर्णाच्छिन्नतत्वोपलम्मा,
प्रसमनिर्यामताधिश्चिच्चमत्कार एषः ॥ २६/१० ॥
भावार्थ-यह परमनिश्चल तेजस्वी चैतन्यका चमत्कार जयवंत रहो जिसके सहज तेजके समुदायमें तीन लोकोंका स्वरूप मानों डूब रहा है व जिसमें संपूर्ण संकल्प विकल्पोंका अभाव है, तथा जो एक ही स्वरूप है और जो आत्मीक रससे पूर्ण अविनाशी निन तत्वको प्राप्त किये हुए है।
श्री योगेन्द्रदेव अमृताशीतिमें कहते हैंज्वरजननजराणां वेदना यत्र नास्ति, ' परिभवति न मृत्यु गतिनों गतिर्वा ।