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तृतीय खण्ड ।
तदतिविशदचित्तैर्लभ्यते ऽपि तत्त्वं, गुणगुरुगुरुपादांभोजसेवा प्रसादात् ॥ ५८ ॥ भावार्थ - जिस तत्वमें जन्म जरा मरणकी वेदना न हां मृत्यु सताती है न जहांसे जाना है न आना है, सो अपूर्व
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मोक्ष तत्त्व गुणों में महान ऐसे गुरु महाराजके चरणकमलकी सेवा के प्रसादसे अत्यन्त निर्मल चित्तवालोंको इस शरीर में ही अनुभवगोचर होता है।
श्री योगेन्द्राचार्य योगसार में कहते हैं-
जो समसुक्खणिलीण वुहु पुण पुण अप्प मुणेइ । कम्मर करि सावि फुड्डु लहु णिव्त्राण लहेइ ॥ ६२॥
भावाथ-हमान समतामई आनंदमें लीन होकर पुनः पुनः अपने आत्मा अनुभव करता है सो ही शीघ्र कर्मोंका क्षयकर निर्वाणको प्रात करता है ॥ ९४ ॥
उत्थानिका- आगे मोक्षका कारण तत्त्व बताते हैं---- सम् विदित्था चत्ता उबहिं वहित्थमज्झत्थं । • बिसएमु णावसत्ता जे ते मुद्धति णिदिट्ठा ॥ ९५ ॥ सम्यग्निदिपदार्थात्यक्त्वोपधिं वहिस्थमध्यस्थम् । farry नासा ये ते शुद्वा इति निर्दिष्टाः ॥ ६५ ॥
अन्य सहित सामान्यार्थ - (जे) जो (सम्मं विद्विदपदत्था )
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भले प्रकार पदार्थोके जाननेवाले हैं, और ( . वहित्थम् ) बाहरी क्षेत्रादि (अज्झत्थं) अंतरंग रागादि ( उवहिं ) परिग्रहको ( चत्ता ) त्याग कर (चिसयेसु) पांचों इंद्रियो के विषयों में (णावसत्ता) आसक्त नहीं हैं, (ते) वे साधु (गुडति गिहिट्टा) गुद्ध साधक हैं ऐसे कहे र.ए. ।
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