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तृतीय खण्ड।
[३३५ पदार्थोके ज्ञान सहित होनेसे जो यथार्थ वस्तु स्वरूपका ज्ञाता है, तथा विशेष परम शांत भावमें परिणमन करनेवाले अपने आत्मद्रव्यकी भावना सहित होनेसे जो शांतात्मा है ऐसा पूर्ण साधु शुद्धात्माके अनुभवसे उत्पन्न सुखामृत रसके स्वादसे रहित होनेके कारणसे इस फल रहित संसारमें दीर्घकाल तक नहीं ठहरता है अर्थात् शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त करलेता है। इस तरह मोक्ष तत्वमें लीन पुरुष ही अभेद नयसे मोक्ष स्वरूप है ऐसा जानना योग्य है। . भावार्थ-यहां मोक्ष तत्त्वका झलकाव साधुपदमें होजाता है ऐसा प्रगट किया है। जो साधु शास्त्रोक्त अठाईस मूल गुणोंको उनके अतिचारोंको दूर करता हुआ पालता है अर्थात् सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तप वीर्य रूप पांच प्रकार आचारोंको व्यवहार नयकी सहायतासे निश्चय रूप आराधन करता है-इस आचरणमें जिसके रंच मात्र भी विपरीतता नहीं होती है। तथा जो आत्मा और अनात्माके स्वरूपको भिन्न २ निश्चय किये हुए है.ऐसा कि निसके सामने संसारी प्राणी जो अजीवका समुदाय है सो जीव और अजीवके पिंड रूप न दिखकर भिन्न २ झलक रहा है। और जिसने अपनी कषायोंको इतना जला डाला है कि.वीतंगगताके रसमें हर समय मगनता हो रही है ऐसा पूर्ण मुनि पदका आराधनेवाला अर्थात् अपने शुद्ध आत्मीक भावमें तल्लीन होकर निश्चयं रत्नत्रयमई निज आत्मामें एकचित्त होता हुआ श्रमण वास्तवमें मोक्षतत्व है क्योंकि मोक्ष अवस्थामें जो ज्ञान श्रद्धान व तल्लीनता तथा स्वस्वरूपानन्दका भोग है वही इस महात्माको भी प्राप्त हो रहा हैइस कारण इस परम धर्मध्यान और शुक्ल ध्यानकी · अग्निसे अब