________________
w
३३४] श्रीप्रवचनसारटोका ।
अनादिकालजीवेन प्राप्तं दुःखं पुनः पुनः। मिथ्यामोहपरीतेन कषायवशवर्तिना ॥ ४८ ॥ मिथ्यात्वं परमं बीजं संसारस्य दुरात्मनः। . . 'तसाचदेव भोक्तव्यं मोक्षसोल्य जिघृक्षुणा ॥५२ .
भावार्थ-मिथ्या मोहके आधीन होकर व क्रोधादि कषायोंके वशमें रहकर अनादि कालसे इस जीवने वारवार दुःख उठाए हैं। इस दुःखसे भरे हुए संसारका बड़ा बीन मिथ्यादर्शन है। इसलिये जो मोक्षके सुखको ग्रहण करना चाहता है उसे इस मिथ्यात्त्वका ही सर्वथा त्याग कर देना चाहिये ।। ९३ ॥
उत्थानिका-आगे मोक्षका स्वरूप प्रकाश करते हैंअजधाचारविजुत्तो जवस्थपदणिच्छिदो पसंतप्पा । अफले चिरं ण जीवदि इह सो संपुण्णसामण्णो ॥ ९४ ॥ अयथाचारवियुक्तो यथार्थपदनिश्चिती प्रशान्तात्मा । अफले चिरं न जोवति इह स सम्पूर्णश्रामण्यः ॥ ६४ ॥
अन्वय सहित सामान्यार्थ-( अजधाचारविजुत्तो) विपरीत आचरणसे रहित, (जधत्थपदणिच्छिदो) यथार्थ पदार्थोंका निश्चय रखनेवाला तथा.( पसंतप्पा ) शांत स्वरूप ( संपुण्ण सामण्णो) पूर्ण मुनिपदका धारी (सो) ऐसा साधु (इह अफले) इस फलरहित संसारमें ( चिरं ण जीवदि) बहुत काल नहीं जीता है। .
विशेषार्थ-निश्चय व्यवहार रूपसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान सम्यग्चारित्र, सम्यग्तप, सम्यग्वीर्य ऐसे पांच आचारोंकी भावनामें परिणमन करते रहनेसे जो विरुद्ध आचारसे रहित है, सहज ही आनन्द रूप एक स्वभावधारी अपने परमात्माको आदि लेकर